विजयादशमी पर UP के इन जनपदों में होती है रावण की पूजा, जानिए कौन से हैं जनपद तथा गांव

VijayaDashmi 2021 अधिकांश जगह पर रावण का विशाल पुतला बनाकर उसका दहन किया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के कुछ जनपद ऐसे भी हैं जहां पर रावण का मंदिर है और विजयादशमी के दिन रावण की पूजा की जाती है।

By Dharmendra PandeyEdited By: Publish:Fri, 15 Oct 2021 10:53 AM (IST) Updated:Fri, 15 Oct 2021 10:58 AM (IST)
विजयादशमी पर UP के इन जनपदों में होती है रावण की पूजा, जानिए कौन से हैं जनपद तथा गांव
रावण का मंदिर है और विजयादशमी के दिन रावण की पूजा की जाती है।

लखनऊ, जेएनएन। अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि पर भगवान राम ने दिन रावण का वध किया था तथा देवी दुर्गा ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध के उपरान्त महिषासुर पर विजय प्राप्त की थी। इस पर्व को असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इस दिन अधिकांश जगह पर रावण का विशाल पुतला बनाकर उसका दहन किया जाता है, लेकिन उत्तर प्रदेश के कुछ जनपद ऐसे भी हैं जहां पर रावण का मंदिर है और विजयादशमी के दिन रावण की पूजा की जाती है।

दशहरा या विजयादशमी पर्व को लेकर उत्तर प्रदेश के बागपत के साथ भगवान कृष्ण की नगरी मथुरा, इटावा, लखनऊ तथा कानपुर जनपद में कुछ स्थान पर रावण के जुड़े रोचक किस्से भी हैं। यहां पर रावण की पूजा भी की जाती है। गौतमबुद्धनगर जिले के एक गांव के लोग रावण को अपना बेटा मानते हैं। इसके साथ ही लखनऊ तथा कानपुर में रावण को दु:ख हरने वाला माना जाता है। हाथरस में तो रावण के नाम पर 45 वर्ष पहले डाक टिकट भी जारी किया जा चुका है। कानपुर में एक स्थान पर रावण का मंदिर है, जो कि सिर्फ विजया दशमी के दिन ही खुलता है। यहां पर आकर लोग रावण की पूजा करते हैं। प्रदेश के बागपत में एक गांव का नाम ही रावण है। यहां पर रावण को जलाया नहीं जाता। गांव रावण को पूजता है। भगवान कृष्ण की नगरी मथुरा के एक गांव में बीते 25 वर्ष से भक्तगण विजयादशमी पर रावत की पूजा करते हैं। करीब 25 साल से लंकेश भक्त मंडल हर साल विजयादशमी पर रावण की पूजा करता है।

कानपुर के एक मंदिर में विराजमान हैं दशानन

कानपुर शहर का एक ऐसा भी स्थान है जहां रावण के पुतले का दहन नहीं बल्कि पूजन होता है। यह स्थान है कैलाश मंदिर शिवाला। यहां शिव और शक्ति के मंदिर के बीच में ही दशानन का भी मंदिर है। यहां माता छिन्नमस्ता मंदिर के गेट पर ही रावण का मंदिर है। विजय दशमी के दिन सुबह श्रृंगार और पूजन के साथ ही दूध, दही, घृत, शहद, चंदन, गंगा जल आदि से दशानन का अभिषेक किया जाता है। स्व. गुरु प्रसाद शुक्ला ने डेढ़ सौ वर्ष पहले मंदिरों की स्थापना कराई थी। तब उन्होंने मां छिन्नमस्ता का मंदिर और कैलाश मंदिर की स्थापना कराई थी।

शक्ति के भक्त के रूप में यहां रावण की प्रतिमा स्थापित की गई। लंकेश के दर्शन को यहां दूर- दूर से श्रद्धालु आते हैं। भक्त भगवान शिव का अभिषेक करते हैं और फिर दशानन का अभिषेक व महाआरती की जाती है। इस मंदिर में सुहागिनें तरोई का पुष्प अर्पित कर अखंड सौभाग्य की कामना करती हैं। मां भक्त मंडल के संयोजक केके तिवारी का कहना है कि मंदिर में दशानन की 10 सिर वाली प्रतिमा है। दशानन का फूलों से श्रृंगार किया जाता है। सरसों के तेल का दीपक जलाया कर आरोग्यता, बल , बुद्धि का वरदान मांगा जाता है। यहां कानपुर ही नहीं बल्कि उन्नाव, कानपुर देहात के साथ ही फतेहपुर जिलों से लोग दशानन का पूजन करने आते हैं।

रावण को पूजता है बागपत का गांव

विजयादशी पर देश में जहां बुराई के प्रतीक रावण, कुंभकरण और मेघनाद के पुतलों का दहन होगा, वहीं बागपत के बड़ागांव उर्फ रावण में दशहरा पर रावण की पूजा होगी। यहां के लोग तो रावण को अपना पूर्वज मानते हैं। गांव में आज तक न तो रामलीला का मंचन हुआ और न दशहरा पर पुतला दहन। दशहरे पर यहां के ग्रामीण घरों में आटे का रावण बनाकर उसकी पूजा करते हैं। खेकड़ा तहसील का यह गांव राजस्व अभिलेखों में भी बड़ागांव उर्फ रावण के नाम से दर्ज है। करीब 12 हजार आबादी वाले गांव में सिद्धपीठ मां मंशा देवी का मंदिर हैं। इसी मंदिर के कारण गांव का नाम रावण पड़ा था।

किवदंती है कि भगवान श्रीराम पर विजय पाने के लिए रावण ने हिमालय पर मां मंशा देवी की घोर तपस्या की। प्रसन्न होकर मां शक्तिपुंज के रूप में रावण के साथ लंका जाने के लिए तैयार हो गईं। मां ने रावण के सामने शर्त रखी थी कि शक्तिपुंज जहां भी रख देगा, वह उसी स्थान पर विराजमान हो जाएंगी। लंका जाते समय बड़ागांव में रावण ने शक्तिपुंज एक ग्वाले को थमा दिया और लघुशंका करने चला गया। ग्वाला मां के तेज को सहन नहीं कर सका और शक्तिपुंज को जमीन पर रख दिया। इसके बाद मां शर्त के मुताबिक वहीं विराजमान हो गईं। रावण ने कुंड खोदा और स्नान के बाद तप किया। इसके बाद ही गांव का नाम रावण पड़ गया।

रावण के प्रति यहां के लोगों में काफी श्रद्धा है। इस गांव में न तो कभी रामलीला हुई और न दशहरे पर रावण के पुतले का दहन। गांव के बुजुर्ग हरि सिंह ने बताया कि रावण को ग्रामीण अपना पूर्वज मानते हैं। रावण के कारण ही मां मंशादेवी गांव में विराजमान है। मां उनकी मन्नत पूरी करती हैं। बुजुर्गों ने बताया था कि एक-दो बार गांव में रामलीला मंचन व रावण पुतला दहन किया गया, जिससे विपदाएं आई थीं। इसके बाद गांव में दशहरा और रामलीला मंचन नहीं किया गया। टीनू त्यागी का कहना है कि बुजुर्गों की परंपरा को निरंतर निभाते आ रहे हैं। आसपास के इलाकों में भी इस दिन कोई गांव का व्यक्ति रावण दहन नही देखता क्योंकि उनके लिए ये दु:ख की घड़ी है और ऐसा नहीं की ये कोई नई परम्परा हो बल्कि सदियों से यही परंपरा चली आ रही है।

इटावा के जसवंतनगर में नहीं होता रावण का दहन

इटावा के जसवंतनगर में रावण के पुतले का दहन नहीं किया जाता है। उसकी पूजा की जाती है। इसके साथ साथ ही लोग पुतले की लकडिय़ों को अपने अपने घरों में ले जा करके रखते हैं ताकि वे साल भर हर संकट से दूर रह सके। यूनेस्को ने 2005 की रामलीलाओं की रिपोर्ट में भी जसवंतनगर की रामलीला को स्थान दिया था। यहां कलाकार तांबे, पीतल और लौह धातु से बने मुखौटे पहनकर रामलीला के किरदार निभाते हैं।

कान्हा की नगरी मथुरा में होती है रावण की पूजा

दुनिया में भले ही रावण का पुतला दहन कर बुराई पर अच्छाई की जीत बताई जाती हो, लेकिन कान्हा की नगरी मथुरा में तो लम्बे समय से रावण की भी पूजा की जाती है। करीब 25 वर्ष से लंकेश भक्त मंडल हर साल विजयादशमी पर रावण की पूजा करता है। इसके पीछे तर्क है कि वह प्रकांड विद्वान थे। भगवान श्रीराम ने खुद उनको अपना आचार्य माना था।

लंकेश भक्त मंडल का मानना है कि ऐसे में जब हम हर साल राम की पूजा करते हैं तो रावण की क्यों नहीं। हर साल पुतला जलाने से क्या बुराई दूर हो जाती है। लंकेश भक्त मंडल में सर्वाधिक ब्राह्मण हैं, इसमें भी सारस्वत गोत्र के अधिक हैं। इनमें सारस्वत ब्राह्मण रावण को अपना वंशज मानते हैं। करीब 25 वर्ष पहले लंकेश भक्त मंडल की स्थापना हुई थी। तब से हर वर्ष विजयादशमी पर जमुना पार स्थित भगवान शंकर के मंदिर पर रावण के स्वरूप की पूजा की जाती है। इससे पहले प्रतीकात्मक रूप से रावण के स्वरूप से भगवान भोलेनाथ की पूजा कराई जाती है, इसके बाद मंडल के सदस्य रावण के स्वरूप की पूजा करते हैं। यहां पर रावण का मंदिर निर्माण भी प्रस्तावित है। इस मंडल में करीब 50 सदस्य हैं।

हाथरस में 45 वर्ष रावण पर जारी हुआ था डाक टिकट

रावण के सम्मान में भारत सरकार ने 45 साल पहले डाक टिकट जारी किया था। हाथरस के डाक टिकट संग्रहकर्ता शैलेन्द्र वार्ष्णेय सर्राफ का कहना है कि सरकार ने रावण के साथ सूर्य चंद्रमा और नरसिंह भगवान की डाकटिकटों का सेट जारी किया था।

लखनऊ व कानपुर में तो लोग रावण के जले पुतले की लकड़ियां ले जाते हैं घर

लखनऊ के साथ कानपुर में तो लोग रावण के जले पुतले की लकड़ियां अपने घर ले जाते हैं। लखनऊ की ऐशबाग रामलीला हजारों वर्ष पुरानी है। यहां 16वीं शताब्दी से रामलीला का आयोजन किया जाता है। रावण दहन देश भर में होता है, लेकिन लखनऊ और कानपुर में रावण दहन के बाद पुतले की जली हुई लकड़ियां, अस्थियों के रूप में ले जाकर घरों की छत पर रख दी जाती हैं। मान्यता है कि इससे सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। ऐसा करने से मान्यता है कि घर में बीमारियां नहीं आती हैं और समृद्धि भी रहती है।  

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