बूढ़ी इमारत की हर एक ईंट सुनाती है दास्तान, ऐसे ही नहीं पड़ा नाम काला इमामबाड़ा

नवाब आसफुद्दौला के मामा नवाब मिर्जा अली खां ‘सालारजंग’ ने बनवाया था।

By Anurag GuptaEdited By: Publish:Fri, 22 Feb 2019 03:49 PM (IST) Updated:Sat, 23 Feb 2019 11:35 AM (IST)
बूढ़ी इमारत की हर एक ईंट सुनाती है दास्तान, ऐसे ही नहीं पड़ा नाम काला इमामबाड़ा
बूढ़ी इमारत की हर एक ईंट सुनाती है दास्तान, ऐसे ही नहीं पड़ा नाम काला इमामबाड़ा

लखनऊ, [दुर्गा शर्मा]। सादगी से आज खड़ी हैं जो ये इमारतें। बेशक! बड़े एहतियात से पड़ी होगी नींव इनकी।।बढ़ी इमारत की हर एक ईंट दास्तान सुनाती है। यह दास्तान इमामबाड़ों के शहर लखनऊ के एक खास इमामबाड़े की है। शहर के पुराने मुहल्ले पीर बुखारा में स्थित काला इमामबाड़ा नवाब आसफुद्दौला के मामा नवाब मिर्जा अली खां ‘सालारजंग’ का बनवाया हुआ है। समय के साथ शहर का स्वरूप बदलता गया फिर भी कई इमामबाड़े यहां ऐसे बाकी हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्व है। काला इमामबाड़ा उनमें से एक है। 

काले इमामबाड़े को हाजी बेगम का इमामबाड़ा भी कहा जाता है। इलाका हाता सितारा बेगम कहा जाता है। इस इलाके की मिट्टी बड़ी ऐतिहासिक है। किसी जमाने में बलख बुखारा से एक फकीर लखनऊ आए थे, जिनके नाम से पीर बुखारा मुहल्ला आबाद है। यहीं कभी पीर बुखारा की मजार थी, जो अब गुम हो गई है।

 1958 में यहां एक नक्शा और ताबीज मिला था उसी के इशारे पर यहां खजाने की तलाश में खोदाई की गई थी। खजाना तो नहीं मिला पर पीर बुखारा की खोयी हुई कब्र वजूद में आ गई। इस कब्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस पर किया गया कौड़ियों के चूने का मरमरी पलस्तर प्राचीन कला कौशल का विलक्षण नमूना है। आज भी चांद की 21वीं तारीख को काले इमामबाड़े में मजलिस होती है। उर्दू शायरी के शेक्सपियर मीर अनीस भी यहां सुकून के पल तलाशने आते थे।

करबला शरीफ से मक्का दक्षिण में होने के कारण शियों का यह अजाखाना सभी जगह दक्षिण मुंह ही बनाया जाता है और लखनऊ के लगभग सारे इमामबाड़े दक्षिण ही बने हैं लेकिन कुछ अपवाद भी हैं, जिनमें काला इमामबाड़ा और सौदागर का इमामबाड़ा मशहूर है। ये दोनों इमामबाड़े पूर्वाभिमुखी हैं। वहीं नाजिम साहब का इमामबाड़ा पश्चिम रुख बना है। इस पूरब रुख इमामबाड़े का जैसा नाम है वैसा ही वास्तव में यह बिल्कुल काजल की कोठरी है। चारों दीवारों और मेहराब से लेकर हर तरह से यह इमामबाड़ा बिल्कुल काला है। यहां कुरान की आयतें अलग-अलग डिजाइनों और बेलबूटों में लिखी हैं, जिसके लिखने वाले दिल्ली से बुलाए गए थे।

नवाब शुजाउद्दौला की पटरानी बहूबेगम अपने भाइयों सफदर जंग और सालार जंग को बहुत चाहती थीं। इन सफदर जंग से पहले भी नवाब सफदर जंग हुए हैं जो बहू बेगम के ससुर थे और इन सालार जंग के अलावा हैदराबाद दक्खिन के वजीर सालार जंग नाम से मशहूर हुए हैं। हालांकि इन दोनों से उन लोगों को कोई वास्ता नहीं है।

दिल्ली दरबार की ओर से नियुक्त गुजरात के सूबेदार मुहम्मद इसहाक खां, बहूबेगम और नवाब सालार जंग के पिता थे, लेकिन अपने बच्चों को वे बचपन में ही अनाथ छोड़ अल्लाह को प्यारे हो गए थे। दिल्ली के बादशाह की इस परिवार पर कुछ ऐसी कृपा बनी रही कि उन लोगों को कभी मुसीबत का सामना नहीं करना पड़ा। 

बहूबेगम बेहद खूबसूरत और अदबी थीं। श्रृंगारिक गजलें भी लिखती थीं। 1775 में सिर्फ 44 वर्ष की उम्र में शुजाउद्दौला अल्लाह को प्यारे हो गए। नवाब बेगम और बहूबेगम दोनों सास बहू मिलकर फैजाबाद में उसी शानोशौकत से राज करती रहीं।

 

आसफद्दौला बहू बेगम के अकेले बेटे थे, लेकिन मां-बेटे में हमेशा अनबन रही। वह लखनऊ में मुहर्रम के दिनों में आकर रहती थीं। वो गोमती के किनारे अपने खास महल सुनहरा बुर्ज में रहती थीं। कुड़ियाघाट के पूरब में बने हुए इस आलीशान महल का अब नामोनिशान भी नहीं रह गया है। बहू बेगम की तकदीर ने उनका साथ नहीं दिया। विधवा हो जाने का गम जो था सो था। 1797 में उनके इकलौते बेटे आसफुद्दौला भी इंतकाल फरमा गए। 

बहू बेगम को उनके भाई भतीजे बहुत चाहते थे। उनके भाई नवाब सालार जंग को उनकी मौत के बाद काले इमामबाड़े में दफन कर दिया गया। नवाब के बेटे कासिम अली खां को उनकी बुआ बहुत प्यार करती थीं, तो आसफुद्दौला के भी अजीज थे। काले इमामबाड़े के पास ही बाहर जो आठमहल का गोल गुंबददार मकबरा बना हुआ है, उसमें नवाब कासिम अली खां का मजार है।

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