स्टेज से स्क्रीन तक कठपुतली का क्रेज, विधा को संजोने में लगे राजधानी के ये कलाकार

संस्कृति विभाग व सूचना विभाग कर रहा प्रयास। दैनिक जागरण आपकों इन कठपुतली के कलाकारों व उनके संघर्षो से रूबरू करा रहा है।

By Anurag GuptaEdited By: Publish:Thu, 20 Sep 2018 01:07 PM (IST) Updated:Thu, 20 Sep 2018 01:21 PM (IST)
स्टेज से स्क्रीन तक कठपुतली का क्रेज, विधा को संजोने में लगे राजधानी के ये कलाकार
स्टेज से स्क्रीन तक कठपुतली का क्रेज, विधा को संजोने में लगे राजधानी के ये कलाकार

लखनऊ(जुनैद अहमद)। पुरातन काल से वर्तमान तक संचार की विधा कठपुतली न सिर्फ जिंदा है बल्कि इसका स्वरूप भी बरकरार है। अब यह परंपरागत कहानियों से निकलकर नए मुद्दों से जुड़ रही हैं। यहां तक कि बैले और रॉक डांस तक करने लगी हैं। एक समय था जब इस कला के कद्रदानों की संख्या लगातार गिरती जा रही थी। सरकार भी इस पर ध्यान नहीं दे रही थी। ऐसे में वे कलाकार इस लुप्तप्राय विधा के लिए भगीरथ बनकर सामने आए जिन्होंने घटते प्रशंसकों के बावजूद इसे मरने नहीं दिया। ये इन्हीं के प्रयास का परिणाम है कि पिछले कुछ वर्षों में कठपुतली का क्रेज बढ़ गया है। शहर के सांस्कृतिक आयोजनों में पपेट शो आयोजित हो रहे हैं। टीवी और रेडियो में इसका प्रचार-प्रसार हो रहा है। खासकर बच्चों के लिए पपेट पर आधारित कार्यक्रम बन रहे हैं। दैनिक जागरण आपकों इन कठपुतली के कलाकारों व उनके संघर्षो से रूबरू करा रहा है।

बच्चों को पुराने जमाने के मनोरंजन के साधनों से रूबरू कराने के उद्देश्य से दूरदर्शन एक शो चला रहा है। दुनिया के प्रसिद्ध सेस्मे स्ट्रीट का भारतीय रूपांतरण शो 'गली गली सिम सिम' बच्चों को हंसाने के साथ उन्हें शिक्षित भी कर रहा है। मुख्य किरदार निभा रही पपेट 'चिंपी' को राजधानी की गजल जावेद अपनी आवाज दे रही हैं।

पापा के सपनों को पूरा करने में जुटी तान्या
कठपुतली के वरिष्ठ कलाकार मेराज आलम की पुत्री तान्या आलम भी अपने पिता के सपनों को साकार करने में लगी हुई हैं। पांच साल की उम्र में से ही वह अपने पिता को कठपुतली की प्रस्तुति में सहयोग देती आई हैं। तान्या ने बताया, बचपन से ही कठपुतली की कहानी सुनती आ रही हूं। कठपुतली बनते और इस कला को बहुत करीब से देखा है। इस कला में ही भविष्य तलाश रही हूं।

गुलाबो-सिताबो ने सब कुछ दिया
पिछले 35 वर्षों से कठपुतलियों को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में लगे कठपुतली कलाकार प्रदीप त्रिपाठी टीना चिडिय़ा की कहानी, नटखट मुर्गा, लवकुश, कृष्णा, अवंतीबाई, काबुलीवाला सहित कई शो कर चुके हैं। गुलाबो-सिताबो के लिए उन्हें मानव विकास संसाधन मंत्रालय से फेलोशिप भी मिल चुकी है। गुलाबो-सिताबो के मंचन के लिए वह फ्रांस, स्पेन, जर्मनी व डेनमार्क भी जा चुके हैं। उन्होंने बताया कि वर्ष 1982 में वह दूरदर्शन के लिए कठपुतली का प्रोग्राम शुरू किया। उसके बाद धीरे-धीरे स्टेज शो करने लगा। वह बताते हैं कि कठपुतली मुख्यत: चार प्रकार की होती है, जिसमें ग्लव पपेट, रॉड पपेट, शैडो पपेट, स्टिंग पपेट। वह बताते हैं कि विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा कठपुतली के जरिए योजनाओं का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है लेकिन उचित मानदेय न मिलने से कलाकार मायूस हैं। 

पपेट को ही बना ली जिंदगी
मेराज आलम 18 साल से कठपुतलियों को आकार देते आ रहे हैं। इनकी फेहरिस्त में भी कई चर्चित व नामचीन पपेट शो हैं। वे जूता आविष्कार, आजादी पोलियो से, दो कदम दो बूंद, खड़कू सिंह और नन्हू नाई जैसे शो कर चुके हैं। इतना ही नहीं, उनकी पत्नी अजरा मेराज, बेटा तनय मेराज व बेटी तान्या मेराज भी कठपुतली के बेहतरीन कलाकार हैं। पूरा परिवार कठपुतली को आम लोगों तक पहुंचाने के अभियान में सशक्त भूमिका निभा रहा है। वह बताते हैं कि कलाकारों के व्यक्तिगत प्रयासों के अलावा सरकार की भी जिम्मेदारी है कि इस विधा के विकास के लिए काम करे। वह कहते हैं कि बदलते जमाने के साथ पपेट ने भी खुद को बदला है। सरकार भी अब कठपुतली पर ध्यान दे रही है। एनसीईआरटी ने भी कठपुतली को एक विषय के रूप में मान्यता दे दी है।

स्कूलों में बच्चों को पढ़ाई के लिए करते हैं प्रेरित
चंद्र शेखर शुक्ला वर्ष 2006 से ग्रामीण इलाकों के स्कूलों मे कठपुतली के माध्यम से बच्चों व उनके अभिभावकों को शिक्षा के लिए जागरूक कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि ग्रामीण इलाकों में कठपुतली शो में बहुत भीड़ होती है। वह बहुत आसानी से इसके द्वारा दिए जाने वाला संदेश ले लेते हैं। शिक्षा के अलावा स्वच्छता के लिए भी वह लोगों को जागरूक करते हैं। लखनऊ के अलावा बाराबंकी, गोंडा, बलरामपुर, बलिया, कानपुर समेत कई अन्य जिलों में कई कार्यक्रम कर चुके हैं।

महिलाओं को स्वच्छता के लिए कर रहीं प्रेरित
कठपुतली के माध्यम से महिलाओं को स्वच्छता और स्वास्थ्य के लिए जागरूक कर रहीं उमा शुक्ला पिछले लगभग दस वर्षों से कठपुतली के कार्यक्रम आयोजित कर रही हैं। महिलाओं को सेनेटरी पैड के प्रयोग करने के साथ बेटियों को शिक्षा के लिए जागरूक कर रही हैं। उनकी प्रतिभा को देख वर्ष 2015 में प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उन्हें सम्मानित भी किया। उमा बताती हैं कि इस विधा के माध्यम से कई लोगों की जिंदगी बदली है। साथ ही लोगों की मानसिकता भी बदल रही है।

ऐसा रहा सफर
नवाब वाजिद अली शाह के शासनकाल में हिंदी-उर्दू मिश्रित गुलाबो-सिताबो पपेट शो की शुरुआत हुई। आगे चलकर गुलाबो-सिताबो कठपुतली कला का पर्याय हो गईं। फिर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में कठपुतलियों का इस्तेमाल लोगों में देशप्रेम जगाने के लिए होने लगा। आजादी के बाद 1963 में लखनऊ के लिटरेसी हाउस में कठपुतली बनना शुरू हुई और इस कला को सिखाया जाने लगा। यहां से प्रशिक्षित होकर निकले कलाकार सूचना विभाग, संस्कृति विभाग की ओर से आयोजित कई कार्यक्रम कर रहे हैं।

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