74th Independence Day 2020: आई तारीख सुहानी करने ताजा उस सुबह की कहानी, फिजां में फिर घुल रही लड्डुओं की खुशबू

74th Independence Day 2020 आजादी 15 अगस्त 1947 की सुबह को देखने वालों ने बयां की उस दिन की तस्वीर।

By Divyansh RastogiEdited By: Publish:Sat, 15 Aug 2020 08:14 AM (IST) Updated:Sat, 15 Aug 2020 08:14 AM (IST)
74th Independence Day 2020: आई तारीख सुहानी करने ताजा उस सुबह की कहानी, फिजां में फिर घुल रही लड्डुओं की खुशबू
74th Independence Day 2020: आई तारीख सुहानी करने ताजा उस सुबह की कहानी, फिजां में फिर घुल रही लड्डुओं की खुशबू

लखनऊ [जितेंद्र उपाध्याय]। 74th Independence Day 2020: दिल में आजाद भारत की तस्वीर और जुबान पर देशभक्ति के तराने। बजते ढोल-नगाड़ों के बीच हाथ में तिरंगा लिए सड़कों पर उमड़ता हुजूम, सदियों बाद ऐसी खुशगवार सुबह आई थी। हर जुबां पर भारत माता के जयकारे थे। हर कोई जोश से लबरेज था, क्योंकि यह कई पीढिय़ों के ख्वाब के साकार होने का दिन था। बंदिशों की बेडिय़ां तोड़कर सूरज की किरणें नए युग की इबारत लिख रही थीं। वैसे तो आजादी के एक दिन पहले ही फिरंगियों के चंगुल से देश के आजाद होने का अहसास सबको हो गया था, लेकिन इससे किसी का जोश कम न पड़ा। 15 अगस्त 1947 की सुबह का इस तरह से जोश-ओ-खरोश से इस्तकबाल हुआ, कि नजारा आज तक याद है। वह मुकद्दस दिन याद करते ही आज भी फिजां में गरमागरम जलेबी और मोतीचूर के लड्डूओं की खुशबू आने लगती है। प्रत्यक्षदर्शियों के हवाले से आजादी की पहली सुबह की सुनहरी तस्वीर दिखाती पेश है यह रिपोर्ट ...

 

आजादी के उल्लास में एक कक्षा आगे कर दिया गया था

पूर्व महापौर डॉ. दाऊजी गुप्ता के मुताबिक, आजाद भारत में प्रदेश की नवनियुक्त राज्यपाल सरोजनी नायडू लखनऊ मेल से सुबह सात बजे दिल्ली से राजधानी लखनऊ पहुंची थीं। स्टेशन पर उन्हें लेने के लिए बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे। सरोजनी नायडू रेलवे स्टेशन से सीधे राजभवन पहुंचीं। यहां उन्होंने सुबह ठीक आठ बजे आजाद भारत का पहला झंडारोहण किया। हजरतगंज की सड़क पर हजारों की भीड़ जमा थी। ढोल-नगाड़े के साथ जगह-जगह जश्न मनाया जा रहा था। मिठाई की दुकान हो या दूध की दुकान, हर तरफ आजादी का जश्न छाया था। मुफ्त में मिठाई व दूध बांटा जा रहा था। लोग सुबह अखबार पढऩे के लिए बेताब हो रहे थे। सभी को जानना था कि अंग्रेजों के साथ कांग्रेस का क्या समझौता हुआ। एक डर भी था दिलों में कि कहीं फिर से अंग्रेजों का कोई नया खेल न शुरू हो जाए। झंडा ऊंचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा... के साथ मैं निकल पड़ा। हालांकि, एक दिन पहले 14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि से ही घरों में उल्लास का माहौल था। मैं तो गणेशगंज में रहता था। मुहल्ले के लोगों के साथ प्रभातफेरी की तैयारी कर रहा था। 15 अगस्त की भोर के चार बजे थे। सभी अपने-अपने घरों से प्रभातफेरी के लिए निकल रहे थे। सूर्योदय के साथ सड़क पर ऐसी चहल-पहल शुरू हुई कि निकलने की जगह तक नहीं बची। एक-दूसरे को गले लगाकर बधाई देने का क्रम भी चलता था। गणेशगंज के लोगों ने पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के लिए अपने घरों में रहने की व्यवस्था की थी। दोपहर हुई तो पता चला कि सभी को एक कक्षा आगे कर दिया गया था। मैं भी कक्षा पांच से कक्षा छह में कर दिया गया था। स्वतंत्रता की खुशी दोगुनी हो उठी थी, जिस आजादी का इंतजार था, उसकी सुबह को देखने की बेकरारी को शब्दों में बयां करना मुश्किल है।

 

हर हाथ में तिरंगा, जुबां पर भारत माता की जय

स्वतंत्रता सेनानी डॉ. बैजनाथ सिंह के मुताबिक, लंबे स्वतंत्रता संग्राम के बीच जिस आजादी का सभी को वर्षों से इंतजार था, वह आजादी अब हमारे सामने थी। सभी उस उल्लास के दिन को करीब से देखकर यादगार बनाना चाहते थे। साइकिल, तांगा और पैदल लोग पूरे शहर में चक्कर काट रहे थे। मेरी उम्र करीब 26 साल थी। उस समय आजादी की लड़ाई जोर पर थी। कब तक रोक पाता खुद को, परिवार से मिली राजनीति की विरासत का कीड़ा भी मेरे दिमाग में घर कर चुका था। मेरे नाना शिवमूर्ति कांग्रेस में होने के साथ ही पंडित जवाहर लाल नेहरू के करीबी थे। महानगर से होते हुए मैं आजादी के दिन पूरे शहर में तिरंगा लेकर घूमा था। हर ओर भारत माता की जय के नारे लगाए जा रहे थे और जश्न चरम पर था। दुकानों पर मुफ्त में लड्डू बांटे जा रहे थे। ङ्क्षहदू-मुस्लिम  एक-दूसरे को गले लगाकर बधाई दे रहे थे। विधानभवन के सामने तिल रखने की जगह नहीं थी, लेकिन किसी को इस भीड़ से कोई कष्ट नहीं था। सभी अपनी बात करने को बेकरार थे। तहजीब के शहर की मेहमाननवाजी का दृश्य भी खास था। सभी के अंदर पाकिस्तान और सिंध से आए शरणार्थियों को पनाह देने की उत्सुकता नजर आ रही थी। सभी ने उनको अपने यहां रखने के लिए घरों के दरवाजे खोल दिए थे। उन्हें फिर आलमबाग के चंदरनगर इलाके में ठहराया गया। सभी अपने-अपने घरों से भोजन बनाकर लाते थे। एक घटना याद आती है कि महानगर गोल चौराहे पर कोई छोटा नेता ऐसा भाषण दे रहा था। लगा कि मानो जवाहर लाल नेहरू बोल रहे हों। सुनने वालों की संख्या इतनी थी कि लोग जहां खड़े रहे, वहीं घंटों खड़े रहे।

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