अयोध्‍या में हजारों लावारिस शवों के वार‍िस बने मो. शरीफ...ह‍िंंदू शव के ल‍िए च‍िता भी सजाई, अब जी रहे मुफल‍िसी में

30 वर्ष पूर्व युवा पुत्र की मार्ग दुर्घटना से मौत और लावारिस के तौर पर उसके अंतिम संस्कार ने शरीफ पर ऐसा असर डाला कि वो किसी भी लावारिस शव के वारिस बन कर सामने आए। इसके बाद दिन-महीने-साल गुजरते गए कि‍ंतु शरीफ ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

By Anurag GuptaEdited By: Publish:Fri, 25 Jun 2021 06:06 AM (IST) Updated:Fri, 25 Jun 2021 03:07 PM (IST)
अयोध्‍या में हजारों लावारिस शवों के वार‍िस बने मो. शरीफ...ह‍िंंदू शव के ल‍िए च‍िता भी सजाई, अब जी रहे मुफल‍िसी में
हजारों शवों का अंतिम संस्कार कर चुके मो. शरीफ को 2019 में पद्म पुरस्कार के लिए नामित क‍िया गया था।

अयोध्या, [रघुवरशरण]। हजारों लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुके बुजुर्ग समाजसेवी मो. शरीफ को निस्वार्थ सेवा के लिए भले ही गत वर्ष प्रतिष्ठापूर्ण पद्मश्री सम्मान के लिए चयनित किया गया, कि‍ंतु वे स्वयं मुफलिसी में जीवन बिता रहे हैं। 30 वर्ष पूर्व युवा पुत्र की मार्ग दुर्घटना से मौत और लावारिस के तौर पर उसके अंतिम संस्कार ने शरीफ पर ऐसा असर डाला कि वो किसी भी लावारिस शव के वारिस बन कर सामने आए। इसके बाद दिन-महीने-साल गुजरते गए, कि‍ंतु शरीफ ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। देखा तो, हर लावारिस शव में अपने पुत्र के चेहरे को और उसी अपनत्व के साथ अंतिम संस्कार करते रहे। पूरी रीति और अलविदा की करुणा के साथ। यदि शव हि‍ंदू का हुआ, तो चिता सजाकर अंतिम विदा दी और यदि मुस्लिम का हुआ, तो सदा के लिए सुलाने की हर सुविधा मुहैया कराने के साथ।

पुत्र को खोने के बाद लावारिस शवों को संस्कारित करने का दायित्व निभाने में शरीफ ऐसे खोए कि साइकिल मरम्मत की स्थापित दुकान हाशिए पर सरक गई। सेवा-संवेदना के जोश में गृहस्थी की गाड़ी ङ्क्षखचती रही। शरीफ के तीन अन्य बेटे अपनी-अपनी लाइन लगते रहे। एक ने साइकिल मरम्मत की दुकान संभाली, दूसरे ने मोटर साइकिल की मरम्मत का काम करना शुरू किया और तीसरे ने ड्राइवर का पेशा अपनाया। तन ढकने के लिए कपड़े, दो जून की रोटी और सिर के ऊपर छत की जुगत सुनिश्चित होती रही तो मो. शरीफ भी घरेलू जिम्मेदारी की चि‍ंता से ऊपर उठकर अपना मिशन आगे बढ़ाते गए। इस यात्रा में वे भूल ही गए कि शरीर का कस-बल ढीला पड़ता जा रहा है।

85 वर्षीय शरीफ के चेहरे और शरीर की भाषा भी करीब एक दशक से थकान और टूटन बयां करने लगी थी, कि‍ंतु वे अपनी चि‍ंता किए बिना लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करते रहे। तकरीबन पांच हजार लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुके मोहम्मद शरीफ की गत वर्ष सरकार ने सुधि ली। उन्हें प्रतिष्ठापूर्ण पद्मश्री सम्मान के लिए चुना गया। इस सम्मान की घोषणा से निस्वार्थ सेवा कर रहे शरीफ की नम और संवेदना से भरी आंखों में चमक भी पैदा हो गई, कि‍ंतु स्वास्थ्य संबंधी समस्या और बुनियादी जरूरतों का संकट उनकी चमक पर पानी फेर रहा है। पद्मश्री सम्मान की घोषणा के साथ सांसद, महापौर, विधायक तक उनकी चौखट तक पहुंचे और उनके अवदान की सराहना करते हुए घर की जर्जर छत के एवज में नया घर, समुचित इलाज और आर्थिक सहयोग का आश्वासन दिया, कि‍ंतु लंबे समय बाद भी यह कोरा साबित हो रहा है।

आश्वासन के बावजूद नहीं मिला सहयोग : पिता से प्रेरित हो लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करने की परंपरा आगे बढ़ा रहे मो. सगीर के अनुसार ढाई वर्ष पूर्व मझले भाई नहीं रहे, उनकी पत्नी और चार बेटियों के अलावा संयुक्त परिवार में सवा दर्जन सदस्य हैं। उनके भरण-पोषण के अलावा पिताजी के इलाज में प्रति माह पांच हजार का खर्च आ जाता है। पद्मश्री मिलने की घोषणा से इस सम्मान के साथ आर्थिक सहायता की संभावना जगी थी, कि‍ंतु यह संभावना साकार होती नहीं दिख रही है। बार-बार दौडऩे के बावजूद जन प्रतिनिधि अपना आश्वासन नहीं पूरा कर पा रहे हैं।

वृद्धावस्था पेंशन तक नहीं : बुजुर्ग समाजसेवी के प्रति सहायता की गंभीरता का अंदाजा इस सच्चाई से लगाया जा सकता है कि उनके अभाव की बार-बार गुहार के बावजूद उनकी वृद्धावस्था पेंशन तक नहीं सुनिश्चित की जा सकी है। 

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