UP में महल पाने के ल‍िए ओयल स्टेट के राज पर‍िवार ने ल‍िया RTI का सहारा, 93 साल बाद म‍िला हक

सूचना के अधिकार की हनक कहानी दिलचस्प है और शुरू होती है 1928 में। ओयल रियासत के तत्कालीन राजा युवराज दत्त सिंह ने अपना एक महल डिप्टी कलक्टर को किराए पर दिया था। इस वक्त वहां जिलाधिकारी लखीमपुर का आवास है।

By Anurag GuptaEdited By: Publish:Sat, 20 Feb 2021 05:57 PM (IST) Updated:Sun, 21 Feb 2021 07:25 AM (IST)
UP में महल पाने के ल‍िए ओयल स्टेट के राज पर‍िवार ने ल‍िया RTI का सहारा, 93 साल बाद म‍िला हक
मूल अभिलेख न मिलने पर 1988 से बंद था किराया, लिया आरटीआइ का सहारा।

लखनऊ, जेएनएन। एक फिल्म आई थी 'कागज'। जिसमें नायक को कागजों में जीवित होने और अपना हक पाने के लिए सिस्टम से जूझते दिखाया गया है। ऐसी ही कहानी से लखीमपुर की ओयल रियासत के राज परिवार को दो-चार होना पड़ा। चल-अचल संपत्ति और रियासत के रुतबे के बीच कागज की क्या अहमियत है, यह उनको 38 साल में पता चल गया। खैर, अंत भला तो सब भला और आरटीआइ एक्टिविस्ट सिद्धार्थ नारायण ने दस रुपये और दस महीने के समय में अरबों की संपत्ति के कागज राजपरिवार के हाथ में थमा दिए।

कहानी दिलचस्प है और शुरू होती है 1928 में। ओयल रियासत के तत्कालीन राजा युवराज दत्त सिंह ने अपना एक महल डिप्टी कलक्टर को किराए पर दिया था। इस वक्त वहां जिलाधिकारी लखीमपुर का आवास है। तीस साल बाद 1958 में इस किरायेनामे का नवीनीकरण भी किया गया। राजा युवराज दत्त की मृत्यु 1984 में हो गई। तीस साल बाद 1988 में जब फिर नवीनीकरण की बारी आई तो पता चला कि 1959 में डीड संपादित की गई है, और जो खसरा नंबर चढ़ा है वह महल का नहीं है। डीड बढ़ाने और सही खसरा संख्या पता करने के लिए मूल कागज मांगे गए। राज परिवार के पास महल के असली कागज नहीं थे तो किराया मिलना बंद हो गया। राज परिवार ने अपने स्तर से मूल अभिलेख खोजना जारी रखा, लेकिन कागज तो गुम थे।

राजा के पौत्र प्रद्युम्न नारायण सिंह की मुलाकात आरटीआइ एक्टिविस्ट सिद्धार्थ नारायण सिंह से हुई। 2019 में आरटीआइ की चार याचिकाएं जिलाधिकारी लखीमपुर, मंडलायुक्त, वित्त विभाग और राजस्व परिषद में डाली गई। 27 मार्च 2020 आरटीआइ का जवाब मिला कि कागज सीतापुर में हो सकते हैं क्योंकि आजादी के पहले लखीमपुर के अभिलेख सीतापुर में रखे जाते थे। इसके बाद राज परिवार ने उप निबंधक कार्यालय से सूचना मांगी और 21 अक्टूबर 2020 को खाता संख्या पांच और खसरा संख्या 359 यानी महल के कागज राज परिवार के हाथ में थे। आरटीआइ एक्टिविस्ट सिद्धार्थ नारायण सिंह ने कहा कि अगर हम कोर्ट कचहरी जाते तो बरसों लग जाते, लेकिन सिर्फ दस महीने में दस रुपये खर्च करके महल के कागज मिल गए। राज परिवार ने शनिवार को लखनऊ के ओयल हाउस मे प्रेस कांफ्रेंस करके आरटीआइ और जिला प्रशासन लखीमपुर को धन्यवाद दिया।

1928 में था 101 रुपये किराया : इस महल को जब राजा युवराज दत्त ने किराए पर दिया था, तब इसका किराया 101 रुपया प्रतिमाह तय किया गया था। इसमें यह शर्त भी थी कि राज परिवार चाहे तो 101 रुपये की जगह डिप्टी कलक्टर के वेतन की दस फीसद धनराशि किराये के रूप में ले सकता है।

किराया नहीं, कागज अहम : मीडिया से मुखातिब राज परिवार के विष्णु नारायण सिंह, कुंवर प्रद्युम्न नारायण सिंह और हरिनारायण सिंह ने कहा कि 1988 से किराया नहीं मिला है, लेकिन हमारे लिए अभिलेख अहम हैं। हमारे पूर्वजों की एक धरोहर सिर्फ कागज की कमी के चलते हमसे दूर जाती लग रही थी। अब पिछला किराया लेना है या नहीं, हम परिवार में बैठकर तय करेंगे। इस लड़ाई में लखीमपुर के डीएम शैलेंद्र कुमार ने बहुत सहयोग किया। उन्होंने डीएम से महल के बेहतर रखरखाव और पर्यावरण की दृष्टि से हरा-भरा रखने की अपील की। 

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