अब परदेस के फुटपाथों पर नहीं सोएंगे कलाकारों के सपने
लखनऊ उत्तर प्रदेश से उपजे मूर्धन्य कलाकारों की संख्या में कई शून्य लगाए जा सकते हैं। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश में सिनेमा का ग्राफ शून्य से ऊपर नहीं उठ सका। लेखक प्रसिद्ध गीतकार मनोज मुंतशिर अपने लेख से इसकी वजह समझते हैं जिससे हम आपको रूबरू करा रहे हैं।
लखनऊ [मनोज मुंतशिर]। दुनिया में दो तरह के लोग पाए जाते हैं, शिकायत करने वाले और संकल्प लेने वाले। उत्तर प्रदेश और सिनेमा के संदर्भ में कहूं तो यहां शिकायत करने वालों का शोर तो बहुत सुनाई पड़ा, लेकिन संकल्प लेकर आगे बढ़ने वाले पदचाप नहीं सुनाई दिए। देश का सबसे बड़ा प्रदेश, जो आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब से ही नहीं, अपनी कलात्मक पृष्ठभूमि के लिहाज से भी दुनिया के कई बड़े देशों को मात दे सकता है, सिनेमा के क्षेत्र में बेचारा बना रहा, वो भी तब, जब इसी धरती से जन्मे बेटे-बेटियां इसी मिट्टी से पोषण लेकर, फिल्मी दुनिया पर राज करते रहे। मैं लेखक हूं, गणित लगाना मेरा काम नहीं, लेकिन अगर कोई गिनती करने बैठे तो उत्तर प्रदेश से उपजे मूर्धन्य कलाकारों की संख्या में कई शून्य लगाए जा सकते हैं। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश में सिनेमा का ग्राफ शून्य से ऊपर नहीं उठ सका। आइए पहले इसकी वजह समझते हैं-
पहला- उत्तर प्रदेश की सरकारों को सिनेमा में कोई स्कोप नजर नहीं आया, इसीलिए कभी वो सिनेमाई ढांचा और सुरक्षा व्यवस्था यहां विकसित नहीं हुई, जो फिल्म उद्योग के लिए सही माहौल पैदा करती।
दूसरा, यहां से उठे ज्यादातर बड़े कलाकार स्मृतियों के आंसू बहाते रहे, अपनी मिट्टी को याद करके छाती कूटते रहे, लेकिन किसी के पास इतना समय नहीं था कि हिंदी भाषा के सिनेमा को उसकी जमीन देने के लिए कोई सुनियोजित प्रयास करे।
तीसरा- मुंबई में हिंदी सिनेमा और उसकी वस्तुस्थिति पर कभी वैसा प्रश्नवाचक चिह्न नहीं लगा, जैसा आज लगा है। गिनवाने के लिए तो कई और कारण भी हैं लेकिन शब्द-संपदा बड़ी सूझ-बूझ से खर्च करनी चाहिए, इसलिए इतने कारण गिनाना ही काफी होगा।
तो मैं सीधे उस क्रांति की बात करता हूं, जिसकी सुगंध आनी शुरू हो गई है। एक आंकड़ा हमारे सामने कई बार दोहराया गया कि फिल्मों में अपना भाग्य आजमाने के लिए उत्तर प्रदेश से लगभग सात लाख नौजवान हर साल मुंबई पलायन करते हैं, लेकिन डरे-सहमे हुए सपनों का आंकड़ा कभी नहीं बताया गया। क्या हम में से किसी के भी पास उन लोगों की गिनती है जो मुंबई के जानलेवा संघर्ष के डर से, तमाम प्रतिभा और मेधा होने के बावजूद, कभी अपने घर से निकलकर मुंबई जाने वाले गाड़ी पर बैठ ही नहीं पाए...
“मैंने ये सोच कर बोए नहीं ख्वाबों के दरख्त, कौन जंगल में लगे पेड़ को पानी देगा...।”
ये वो लोग हैं, जिनके दिल से अगर हम संघर्ष का डर निकाल सकते, तो आज हमारे पास कई और नवाजुद्दीन, कई और डेविड धवन, कई और अनुपम खेर, कई और मनोज मुंतशिर होते। अगर मैं अपने अनुभव की बुनियाद पर अनुमान लगाऊं, तो मुंबई में कम से कम पांच साल, तीन सवालों का जवाब ढूंढने में निकल जाते हैं- पहला, सुबह की चाय कहाँ मिलेगी। दूसरा, दोपहर का खाना कैसे जुटाएं। तीसरा, रात को सिर छुपाने की जगह कैसे ढूंढें? इन तीन सवालों का जवाब जब तक नहीं मिलता, आप फिल्मों में काम पाने का संघर्ष तो शुरू ही नहीं कर सकते। उत्तर प्रदेश में फ़िल्म सिटी की घोषणा हुई, तो पहली बार मेरे जैसा शब्दों का प्रेमी अंकों के बारे में सोचने लगा। हर साल अगर सात लाख लोगों की जिंदगी से, पांच वर्षों का संघर्ष कम हुआ, तो 35 लाख वर्ष हमने प्रदेश के जनसाधारण को उपहार में दे दिए। इस नई दुनिया में जहां एक-एक पल की कीमत है, इतने बड़े कालखंड का मोल लगाने वाला कैलुलेटर खोजना मुश्किल होगा। अपने यूपी में फिल्म सिटी बनाने की मांग की थी। जोर देकर ये सवाल उठाया कि अगर तमिल फिल्में तमिलनाडु में बनती है, तेलगू फिल्में तेलंगाना में, बंगाली फिल्में कोलकाता में, तो हिंदी फिल्में उत्तर प्रदेश में क्यों नहीं बन सकतीं? हमारी भाषा के पास अपना सिनेमा तो है, लेकिन हमारे सिनेमा के पास अपनी जमीन क्यों नहीं है? मैं फिल्म सिटी बनाए जाने के निर्णय के साथ समय-चक्र के इस परिवर्तन का अभिनंदन करता हूं और उत्तर प्रदेश के सभी कलाकारों और तकनीशियनों को आश्वासन देता हूं कि अब उनके सपने परदेस के फुटपाथों पर नहीं सोएंगे, बल्कि अपने गांव, अपने प्रांत में परवान चढ़ेंगे।
- लेखक प्रसिद्ध गीतकार हैं