अपनी इन खासियतों के लिए आज भी खास है लखनऊ विश्वविद्यालय, जानें-इसका इतिहास

लखनऊ विश्वविद्यालय अपनी खासियत के लिए हमेशा से ही देश-विदेश में चर्चा में रहा है। चाहे यहां के अनमोल रत्न कहे जाने वाले प्रो. राधा कमल मुखर्जी प्रो. केए सुब्रहम्णयम अय्यर प्रो. राधा कुमुद मुखर्जी प्रो. धीरेंद्र नाथ मजूमदार प्रो. डीपी मुखर्जी सहित कई वरिष्ठ शिक्षक रहे हों।

By Vikas MishraEdited By: Publish:Wed, 24 Nov 2021 02:21 PM (IST) Updated:Wed, 24 Nov 2021 04:06 PM (IST)
अपनी इन खासियतों के लिए आज भी खास है लखनऊ विश्वविद्यालय, जानें-इसका इतिहास
एलयू में 101 साल पुरानी टैगोर लाइब्रेरी, 78 साल पुराना भू-गर्भ विज्ञान विभाग का संग्रहालय है।

लखनऊ, जागरण संवाददाता। लखनऊ विश्वविद्यालय अपनी खासियत के लिए हमेशा से ही देश-विदेश में चर्चा में रहा है। चाहे यहां के अनमोल रत्न कहे जाने वाले प्रो. राधा कमल मुखर्जी, प्रो. केए सुब्रहम्णयम अय्यर, प्रो. राधा कुमुद मुखर्जी, प्रो. धीरेंद्र नाथ मजूमदार, प्रो. डीपी मुखर्जी सहित कई वरिष्ठ शिक्षक रहे हों। या फिर 101 साल पुरानी टैगोर लाइब्रेरी, 78 साल पुराना भू-गर्भ विज्ञान विभाग का संग्रहालय। 25 नवंबर को अपने 102 वर्ष में प्रवेश करने वाले विश्वविद्यालय पर पेश है एक रिपोर्ट।

टैगोर लाइब्रेरी: एक क्लिक पर हजारों ई-कंटेंट 

टैगोर लाइब्रेरी की स्थापना 25 नवंबर 1920 में हुई थी। उस समय यहां करीब 3,700 किताबें उपलब्ध थीं। 101 साल में यह सफर आज साढ़े पांच लाख से ज्यादा किताबों और 10,500 ई-कंटेंट तक पहुंच गया है। विश्वविद्यालय के रेकार्ड के मुताबिक पहले लाइब्रेरी की शुरुआत कैनिंग कॉलेज की इमारत के एक कमरे में हुई थी। बाद में इसका स्थान बदल दिया गया। शुरुआती दौर में यहां 3720 किताबें और सदस्यों की संख्या 272 थी। किताबों की डिमांड इतनी बढ़ी की 1945 में यह संख्या 83,226 पहुंच गई। उसके बाद 2008-09 में विश्वविद्यालय डिजिटलाइजेशन की दिशा में आगे बढ़ा और कुछ ई-बुक कंटेंट की सुविधा शुरू कराई गई। डिप्टी लाइब्रेरियन ज्योति मिश्रा ने बताया कि वर्तमान में लाइब्रेरी में 538 कम्प्यूटर हैं। साढ़े पांच लाख से ज्यादा किताबों के साथ-साथ दो हजार पांडुलिपियां भी मौजूद हैं। इसके अलावा ई-कंटेंट भी काफी उपलब्ध है। विश्वविद्यालय के मुताबिक लाइब्रेरी के नए भवन की योजना प्रसिद्व वास्तुकार ग्रिफिन ने तैयार की थी। उनकी मृत्यु होने की वजह से मार्च 1937 में नए भवन (वर्तमान भवन) की नींव का पत्थर तत्कालीन कुलाधिपति सर हैरी हैग ने रखा था। 

भू-गर्भ विज्ञान का संग्रहालय: 35 हजार साल पुराना हाथी का दांत- विश्वविद्यालय की खासियत भू-गर्भ विज्ञान विभाग का सबसे पुराना संग्रहालय भी है। शिक्षकों के मुताबिक यहां 1943 में संग्रहालय की स्थापना हुई थी। यहां एशिया का 35 हजार साल पुराना और 3.54 मीटर लम्बे हाथी दांत, हजारों साल पुराने खनिज, डायनोसार के जीवाश्म, अंडे सहित तमाम चीजें आकर्षण का केंद्र हैं। इसके अलावा पृथ्वी पर सबसे पहले जो जीव आया, उसका जीवाश्म ‘एस्ट्रोमेटोलाइट’ भी यहां मौजूद है। शिक्षकों ने बताया कि हाथी का दांत यमुना नदी के किनारे काल्पी के मैदान में पाया गया था। म्यूजिम में आस्ट्रेलिया से गिफ्ट में मिला उल्का पिंड भी है। 

इन शिक्षकों की रही अहम भूमिका 

प्रो.राधा कमल मुखर्जी: वर्ष 1921 में विश्वविद्यालय में प्रो. मुखर्जी को इकोनॉमिक्स एंड सोशियॉल्जी विभाग के हेड की जिम्मेदारी दी गई थी। यूपी में सबसे पहले विश्वविद्यालय में यह विभाग शुरू हुआ। इसलिए वे उत्तर प्रदेश में समाजशास्त्र के प्रेरणा के रूप में भी आज भी प्रसिद्व हैं। विभाग के प्रो. डीआर साहू बताते हैं कि प्रो. राधा कमल मुखर्जी 1949 तक विभाग के अध्यक्ष रहे। इस दौरान विभाग में रिसर्च से लेकर काफी बेहतर काम हुआ। आज समाजशास्त्र विभाग और उससे जुड़े कॉलेजों को मिलाकर करीब पांच हजार छात्र अध्ययनरत हैं। 

प्रो.धीरेंद्र नाथ मजूमदार: विश्वविद्यालय के अनमोल रत्न कहे जाने वाले प्रो. मजूमदार 1928 में लखनऊ विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र विभाग में शिक्षक नियुक्त हुए। उनके कार्यकाल में कई रिसर्च प्रॉजेक्ट पर बेहतर काम हुआ। 1950 में प्रोफेसर बनने के बाद 1951 में उनकी अध्यक्षता में मानव विज्ञान विभाग स्थापित हुआ था। तब सिर्फ बीए में यह विषय पढ़ाया जाता था। बाद में बीएससी में भी इसकी शुरुआत हो गई। वर्तमान में इस विभाग में ट्राइबल संग्रहालय बनकर तैयार है।

ये भी अहम रोल में रहे: प्रो.केए सुब्रहम्ण्यम अय्यर, प्रो. राधा कुमुद मुखर्जी, प्रो. एनके सिद्वांत, प्रो. सेवाराम शर्मा सहित अन्य। 

1960 में दी गई थी पहली पीएचडी: विश्वविद्यालय के समाज कार्य विभाग में सबसे पहले पीएचडी व डीलिट शुरू हुई थी। विभाग के प्रो.राजकुमार सिंह बताते हैं कि 1948 में जेके इंस्टिट्यूट ऑफ सोशियॉलजी इकॉल्जी एंड ह्यूमन रिलेशन की स्थापना हुई। उस समय के डायरेक्टर प्रो. राधा कलम मुखर्जी थे। 1960 में एबी बोस को पहली पीएचडी की डिग्री दी गई थी। वहीं, 1984 में पहली डीलिट की उपाधि प्रो. सुरेंद्र सिंह को मिली थी।

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