रंगमंच के शहर लखनऊ में छलका कैंसर पीड़ि‍त रंगकर्मी का दर्द, कहा-कोरोना ने बेपटरी कर दी ज‍िंंदगी

सुधाकर कहते हैं कोरोना काल में बिल्कुल भी काम नहीं था। लखनऊ का रंगमंच दो क्लास में बंटा है- हाई और लोअर मिडिल क्लास। एक और वर्ग है- जो विद्यार्थियों का है। ये नाटक देखने तो आते हैं पर दस रुपये का टिकट तक भी लेने को तैयार नहीं हाेते।

By Anurag GuptaEdited By: Publish:Thu, 21 Jan 2021 10:39 AM (IST) Updated:Thu, 21 Jan 2021 10:39 AM (IST)
रंगमंच के शहर लखनऊ में छलका कैंसर पीड़ि‍त रंगकर्मी का दर्द, कहा-कोरोना ने बेपटरी कर दी ज‍िंंदगी
रंगमंच के शहर में सहायता के लिए तरसते कैंसर पीड़ित रंगकर्मी सुधाकर दीक्षित की कहानी।

लखनऊ, जेएनएन। दूरदर्शन में एक स्पॉट ब्वॉय के रूप में काम शुरू करके फिल्मी दुनिया तक का सफर तय किया। रंगमंच को भी अपने हुनर से सजाया। निर्देशक केबी चंद्रा, मुजफ्फर अली और निशीथ चंद्रा समेत तमाम दिग्गजों का साथ भी मिलता गया। गदर, तनु वेड्स मनु, दावत-ए-इश्क जैसी फिल्मों के साथ भी नाम जुड़ा। आज वही रंगकर्मी मदद को मोहताज है। ये कहानी है रंगमंच के शहर में सहायता के लिए तरसते निशातगंज निवासी 49 वर्षीय कैंसर पीड़ित रंगकर्मी सुधाकर दीक्षित की। पहले कोरोना ने काम छीन लिया और फिर कैंसर की मार ने जिंदगी की गाड़ी को बिल्कुल ही बेपटरी कर दिया। कुछ लोग जरूर आगे आए और 14 जनवरी को सुधाकर दीक्षित को केजीएमयू में इलाज के लिए भर्ती कराया गया। उनकी पहली कीमोथेरेपी भी हो चुकी है, पर आगे के उपचार में आर्थिक तंगी आड़े आ रही।

सुधाकर दीक्षित बताते हैं, 1996 में दूरदर्शन के साथ काम करना शुरू किया था। निर्देशक केबी चंद्रा ने एड्स पर टेली फिल्म बनाई थी। टेली फिल्म के बाद सीरियल वगैरह में भी काम मिलने लगा। कुछ जानने वाले नुक्कड़ नाटक करते थे, मैं भी इससे जुड़ गया। फिर रंगमंच से लगाव बढ़ता गया। अनिल मिश्रा गुरुजी के साथ कई नाटक किए। रेपटर्वा फेस्टिवल का भी हिस्सा बना। फिल्म गदर के प्रोडक्शन में भी मैं था। लखनऊ से फैजाबाद, बाराबंकी, बीकानेर, पंजाब जहां जहां शूट हुआ मैं गया। मुंबई में भी रहा। इसके कुछ समय बाद ही एक एक करके पिता, माता और बड़े भाई का हमेशा के साथ साथ छूट गया। धीरे-धीरे मैंने खुद को संभाला और कुछ फिल्मों में काम शुरू किया। इसमें तनु वेड्स मनु, दावत-ए-इश्क जैसी फिल्में शामिल हैं। सरकारी विज्ञापनों के लिए भी बहुत काम किया।

कोरोना ने तोड़ दी कमर

सुधाकर दीक्षित कहते हैं, कोरोना काल में बिल्कुल भी काम नहीं था। लखनऊ का रंगमंच दो क्लास में बंटा है- हाई क्लास और लोअर मिडिल क्लास। एक और वर्ग है- जो विद्यार्थियों का है। ये नाटक देखने तो आते हैं, पर दस रुपये का टिकट तक भी लेने को तैयार नहीं हाेते। पहली बार हौसला फाउंडेशन की ओर से आर्थिक सहायता के लिए अभियान की शुरुआत की गई थी। फिर कलाकार एसोसिएशन से भी मदद की गुहार लगाई गई। ये सब प्रयास कुछ रंग लाए और 14 जनवरी को इलाज के लिए केजीएमयू में भर्ती हो सका। पहली कीमो हो चुकी है। सिर्फ कीमो में ही दस से 15 हजार रुपये खर्च हुए। तीन से चार बार टेस्ट भी हुए। दवाई कुछ वहां से मिलीं, कुछ बाहर से ली। अब तक 50000 रुपये तक खर्च हो चुके हैं।

जमा हुए थे महज 8100 रुपये

हाल ही में उप्र संगीत नाटक अकादमी में सुधाकर दीक्षित की आर्थिक मदद के लिए टैक्स फ्री नाटक का मंचन किया गया था। डोनेशन कार्ड रखा गया था। इस नाटक से महज 8100 रुपये डोनेशन ही आया। रंगकर्मी चंद्रभाष सिंह कहते हैं, क्या इस वैश्विक महामारी या इस जैसी अन्य परिस्थितियों के लिए रंगकर्मियों के लिए कोई व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? जो सिर्फ रंगमंच के भरोसे ही है, वो कैसे आजीविका चलाएगा। 

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