Lucknow Zoo 99 Years: समय के साथ कदमताल के 99 साल, बनारसीबाग से शुरू हुई थी इसकी यात्रा

Lucknow Zoo 99 Years 29 नवंबर को 100 वें साल में प्रवेश करेगा अपना नवाब वाजिद अली शाह प्राणी उद्यान। 29 नवंबर 1921 को शुरू हुई यह यात्रा प्रिंस वेल्स के स्वागत में तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर सर हरकोर्ट बटलर ने स्थापना की थी। 1956 में आया राज्‍य संग्रहालय।

By Divyansh RastogiEdited By: Publish:Fri, 27 Nov 2020 09:41 AM (IST) Updated:Fri, 27 Nov 2020 01:58 PM (IST)
Lucknow Zoo 99 Years: समय के साथ कदमताल के 99 साल, बनारसीबाग से शुरू हुई थी इसकी यात्रा
Lucknow Zoo 99 Years: 29 नवंबर को 100 वें साल में प्रवेश करेगा अपना नवाब वाजिद अली शाह प्राणी उद्यान।

लखनऊ [जितेंद्र उपाध्याय]। Lucknow Zoo 99 Years: गाड़ियों के शोर और भीड़भाड़ के बीच शहर का एक हिस्सा ऐसा है, जहां सुकून की हरियाली बिछी हुई है। यहां पक्षियों का कलरव है, वानरों की धमाचौकड़ी और हिरणों की अठखेलियां भी। इंसानों के जंगल के ठीक बीचोबीच बसी वन्यजीवों की यह नगरी एक अलग ही संसार है। हमारा अपना चिडिय़ाघर। तीन किमी. की परिधि का यह टुकड़ा खुशियां बांटता है और ऐसा करते हुए इसे 99 साल हो चुके हैं। इस 29 नवंबर को यह अपने 100वें साल में प्रवेश करेगा। 29 नवंबर 1921 को बनारसीबाग से शुरू हुई यह यात्रा अपने आंचल में ऐसी कई स्मृतियां समेटे हुए है, जिससे इसकी एक अलग पहचान बनती है।

पांच हजार पेड़ों की छांव के बीच नवाब वाजिद अली शाह प्राणी उद्यान समय के साथ खुद को बदलता रहा है। इक्का से लेकर मेट्रो शहर तक के हर दौर को इसने करीब से देखा है। कभी नरही गेट की ओर इक्कों की कतार लगती थी। अब यहां वाहनों की कतार लगने लगी। आजादी के पहले 29 नवंबर 1921 को प्रिंस वेल्स के स्वागत में तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर सर हरकोर्ट बटलर ने स्थापना की थी। पहले यह बनारसी बाग के नाम से जाना जाता था। शहर के बाहर बनारस से आए आम के पेड़ों की वजह से नाम बनारसी बाग पड़ा।

 18वीं शताब्दी में लखनऊ के नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने बाग के रूप में न केवल स्थापना की, बल्कि बारादरी का निर्माण कर नवाबी कला के रंग को इसके परिसर में समाहित कर दिया। फिरंगियों की सैरगाह के रूप में यह प्रचलित हो गया। कुछ दिन बाद ही नाम बनारसी बाग से बदलकर ङ्क्षप्रस ऑफ वेल्स जूलोजिकल गार्डन ट्रस्ट हो गया। 2001 में जूलोजिकल पार्क और फिर लखनऊ चिडिय़ाघर। 2015 में इसका नाम नवाब वाजिद अली शाह प्राणि उद्यान हो गया। यह सूबे का सबसे पुराना चिडिय़ाघर है। सरकार के अधीन होने के बावजूद सरकारी होने का तमगा नहीं लग सका है। दर्शकों के टिकट और समाजसेवियों के वन्यजीवों को गोद लेने की दिलचस्पी के चलते चिडिय़ाघर में लगातार बदलाव आ रहा है। 1925 में सबसे पहले राजा बलरामपुर ने बब्बर शेर के बाड़े का निर्माण कराया था। 1935 में रानी राम कुमार भार्गव ने तोता लेन का निर्माण कराया। आज फिर भालू, टाइगर बाड़ों के साथ अंदर करीब 100 बाड़े हैं जहां एक हजार से अधिक वन्यजीव अपनी जिंदगी जीने के साथ आने वाले दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। 2006-08 में हाथी सुमित और जयमाला के जंगल में भेजने के बाद हाथी नहीं आया। न्यायालय के आदेश के चलते ऐसा किया गया।

कुछ वन्यजीव तो ऐसे लोकप्रिय हुए कि वे चिडिय़ाघर की पहचान से बन गए। दर्शकों के प्रिय हुक्कू बंदर का निधन हो गया लेकिन आज भी लोग उसे याद करते हैं। अभी तक कोई दूसरा हुक्कू बंदर नहीं आ सका है। सबकी तरह ही कोरोना संक्रमण चिडिय़ाघर पर एक आफत बनकर टूटा। इस मुश्किल दौर का भी इसने दिलेरी से सामना किया और नए माध्यमों को अपनाकर दर्शकों तक अपनी पहुंच बनाई। चिडिय़ाघर आनलाइन हो गया और सभी के मोबाइल फोन तक पहुंच गया।

1956 में आया राज्य संग्रहालय

वैसे तो राजधानी में राज्य संग्रहालय 125 साल पहले कैसरबाग में स्थापित हुआ, लेकिन चिडिय़ाघर में 1956 में मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद ने इसका शिलान्यास किया था। 1963 में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू आए थे और नए भवन का शिलान्यास किया। परिसर 21 जुलाई 1983 में भारतीय वायु सेना का विमान राजहंस लाया गया। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री इस पर सफर करते थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप ङ्क्षसह को भेंट किया था। 1981 से तीन साल तक यह अमौसी हवाई अड्डे पर रहा और फिर इसे संग्रहालय परिसर में स्थापित कर दिया गया।

चिडिय़ाघर के वर्तमान निदेशक आरके सिंह बताते हैं, समय के साथ चिडिय़ाघर में बदलाव होते रहे हैं। तेंदुए के लिए सोलर बाड़ा बनाया गया जो अभी कहीं नहीं है। थ्रीडी थिएटर के साथ ही लाइव किचन की शुरुआत की गई। बच्चों के लिए पार्क के विकास के साथ ही नई बालट्रेन की शुरुआत की गई। पुरानी ट्रेन को हेरिटेज बना दिया गया।

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