Interview : कला और कलाकार के प्रति दया नहीं आदर का भाव चाहिए
उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के नवनियुक्त अध्यक्ष डॉ. राजेश्वर आचार्य से खास बातचीत। वे उप्र संगीत नाटक अकादमी के दो बार सदस्य रहे। आचार्य बोले कला और कलाकार का आदर और संरक्षण किया जाए। इन्हें जल तरंग का जादूगर भी कहा जाता है।
लखनऊ [दुर्गा शर्मा]। बनारस और लखनऊ दोनों ही सांस्कृतिक केंद्र हैं। दोनों शहरों में अंतर क्या देखते हैं? खूबसूरत सा जवाब मिला- लखनऊ सजी-धजी श्रृंगारयुक्त कन्या या युवती है। वहीं, सीधी-सादी, सौम्य, नैसर्गिक सौंदर्य वाली घर की बेटी या बहू है बनारस। लखनऊ में थोड़ा सजावट और अलंकृत बुनावट है, बनारस में लय और कद की बनावट है। बस साज-सज्जा का फर्क है, अंतरात्मा दोनों की एक ही है। दो शहरों की तुलना में ऐसी अद्भुत उपमा कला और संगीतमय हृदय से ही निकल सकती है। प्रख्यात जलतरंग वादक, शास्त्रीय गायक और अब उप्र संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष पद्मश्री डॉ. राजेश्वर आचार्य ने दोनों ही शहर की ललित कलाओं का रसास्वादन किया है।
वे उप्र संगीत नाटक अकादमी के दो बार सदस्य रहे। अब अध्यक्ष की भूमिका में वो अपनी प्राथमिकताओं के बारे में कहते हैं, हमारे यहां कई संगीत और कला विद्वान हैं, फिर भी देश की सांस्कृतिक रीति-नीति का अभी पूर्णतया निर्माण करके इसको कहीं अलग रखा नहीं गया है । राज्य और केंद्र के सांगीतिक संस्थानों को एक करके कार्यशाला, सर्वे, आर्काइव के प्रयास सर्व जन सुलभ होने चाहिए, ताकि सभी लोग हमारी समृद्ध विरासत को जान सकें। सिर्फ महफिलों और मुजरों में सुनना ही तो हमारी विरासत नहीं है। इसके पहले क्या था? क्या उससे पहले सिर्फ संस्कृत गाया जाता था या ब्रज भाषा? हमें ये खोजना है, इसे खोजने का प्रयास करना है। तय करना चाहिए कि हमें संगीत के माध्यम से आत्मविज्ञापन करना है या आत्माभिव्यक्ति।
अभिरुचि बढ़ाने और कला चेतना जागृत करने के प्रयास होने चाहिए। नाटक के क्षेत्र में संकट आ रहा, दर्शक नहीं आते। अभिरुचि बढ़ाने और कलात्मक चेतना जागृत करने के लिए आवश्यक है कि कला और कलाकार का आदर और संरक्षण किया जाए। हमें दया नहीं दिखानी, अपनी विरासत को याद करना है। हर किसी में मौजूद गुण और अपनी विरासत दोनों का ही आदर हो। अपने-अपने राज्य के कलाकारों की आवयकताओं का ध्यान रखा जाए। राजेश्वर आचार्य कहते हैं, हमारे पास पुराने कलाकार हैं, नये विद्यार्थी हैं। उनके लिए अभ्यास कक्ष नहीं हैं। ललित कला वीथिकाएं नहीं हैं, ये तो होना ही चाहिए। हर क्षेत्र की तरह संगीत में भी काम होना चाहिए। ध्यान ये रखना होगा कि रचनाधर्मिता रहे, चरणाधर्मिता न बन जाए। उप्र तो हमेशा ही कला समृद्ध रहा है, अवध की ठुमरी, लखनऊ की ठुमरी क्यों नहीं संभाली जा रही, ये हमारी विरासत है। सामाजिक एकता एवं शांति का सबसे अच्छा साधन संगीत है।
जलतरंग के जादूगर
डॉ. राजेश्वर आचार्य को जल तरंग का जादूगर भी कहा जाता है। वो कहते हैं, आकाश में ही ग्रह नक्षत्र हैं। आकाश अमूर्त है। जो भी पदार्थ बनता है, उसकी ध्वनि घेर लेता है, उसमें जब पानी भरते हैं तो ध्वनि नीचे उतरती है। इसी आधार पर बॉल्स में स्वर व्यवस्था कायम करके उसे स्लोप से राग उत्पन्न करते हैं। जल तरंग, तबला तरंग समेत कई कई तरह के तरंगों की परंपरा भारत में रही है। स्वर जहां से मिला हमारे स्वर प्रेमियों ने उसे संकलित किया और राग में प्रचलित किया। वेदों में भी इसका उल्लेख है।
नाटकों का प्रभाव ज्यादा
नाटक जीवन की समग्रता को व्यक्त करने में सशक्त और समर्थ होने की विधा है। ये हमें अभिव्यक्ति करना सिखाता है। कई बार हम व्यक्त तो करना चाहते हैं प्यार, पर व्यक्त हो गया तिरस्कार। फिल्मों का उतना प्रभाव नहीं, जितना नाटक का। नाटक के लिए पहले कटना पड़ता है। नाटकों के जरिए हम विभिन्न चरित्रों का अध्ययन कर सकते हैं। अपने सामथ्र्य से, अभिव्यक्ति की शक्ति से अपने भीतर के व्यक्ति को शक्ति दे सकें, इसलिए नाटक को उपवेद के रूप में माना गया है और भरतमुनि ने भरत नाट्य शास्त्र की रचना की।
मन के समान तीव्रगामी कला
मन नाम की चीज बहुत ही सूक्ष्म और तीव्र है। उसे कोई पकड़ नहीं सकता। मन के समान कोई तीव्रगामी है तो वो कला है, वह जोड़ लेती है। वाह से बुद्धि चमत्कृत होती है और आह से हृदय की ठाह लगती है, कलाकार आनंद की चाह करता है। ये आस्था का रास्ता है। सारी ललित कलाएं यही हैं। ध्वनि पैदा नहीं होती, ध्वनि उपलब्ध होती है। क्षमता हमारी है। हम जहां तक सुन और देख सकते हैं, ये हमारी सीमा है। जितनी हमारी पात्रता और क्षमता होती, हमें उतना संगीत ही मिलता है।