Republic Day in Lucknow: इमली के वृक्ष पर दी गई थी सैकड़ों क्रांतिकारियों को फांसी, टीले वाली मस्जिद में आज भी है पेड़

एक दरख्‍त की कहानी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों की कथनी और करनी को मैंने अपनी नम आंखों से महसूस किया था। मैं तो बेजुबान खड़ा था लेकिन अंग्रेजों की प्रताडऩा और क्रांतिकारियों की गूंगी चीखें मुझे आज भी याद हैं।

By Anurag GuptaEdited By: Publish:Tue, 26 Jan 2021 12:56 PM (IST) Updated:Tue, 26 Jan 2021 12:56 PM (IST)
Republic Day in Lucknow: इमली के वृक्ष पर दी गई थी सैकड़ों क्रांतिकारियों को फांसी, टीले वाली मस्जिद में आज भी है पेड़
देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का गवाह है टीले वाली मस्जिद में लगा इमली का पेड़।
लखनऊ, जेएनएन। मैं वो दरख्त हूं, जो लोगों की जुबान को अपने फलों की मिठास देकर अपने अंदर उन क्रांतिकारियों के दर्द को महसूस करता हूं जिन्हें मैने अपनी डालों में झुलाया है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों की कथनी और करनी को मैंने अपनी नम आंखों से महसूस किया था। मैं तो बेजुबान खड़ा था, लेकिन अंग्रेजों की प्रताडऩा और क्रांतिकारियों की गूंगी चीखें मुझे आज भी याद हैं। मुझे वो दिन भी याद है जब मेरे करीब इबादतगाह हुआ करती थी और मदरसे में सैकड़ों लोग इल्म की बारीकियां सीखते थे।
1857 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की चिंगारी जब अवध तक आई तो मुझे कुछ पल के लिए खुशी हुई, लेकिन जब अंग्रेजों की जुल्म के आगे क्रांतिकारियों की चीखें मेरी कानों में सुनाई पडऩे लगी तो अंग्रेजों को पटकनी देने की इच्छा तो मैं रखता था, लेकिन कुछ न कर पाने की कसक मेरे दिल में ही पड़ी रही। क्रांतिकारियों की देश के प्रति भक्ति और मदरसे के लोगों की अटखेलियां भी मुझे अब तक याद हैं।

टीले वाली मस्जिद के पीछे मेरी गुमनामी को आजाद बिलग्रामी ने अपनी पुस्तक 'मसायरुल कराम' में लिखकर वर्तमान पीढ़ी को मेरी दास्तां से परिचित कराने का सफल प्रयास किया तो अवध के लेखकों की ओर से लिखी गई कुछ पुस्तकों में भी मेरा जिक्र है। लोगों ने मेरे बारे में जाना और वाह कहकर मुंह मोड़ लिया, लेकिन बेलीगारद और रेजीडेंसी में अंग्रेजों की गोली से बचकर उनकी कैद में आए सैकड़ों गुमनाम देशभक्तों के दर्द को याद कर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मेरी डालों में रस्सियों से फंदा बनाकर अंग्रेजों ने देशभक्तों को लटका दिया था। भारत माता की जय और इंकलाब जिंदाबाद के नारे मेरी कानों में अभी गूंजते हैं।

शहीदों की विधवाओं की चीख को याद कर मेरा कलेजा मुंह को आता है। जिन क्रांतिकारियों ने अपनी जवानी को देश के नाम न्योछावर कर हंसते-हंसते फांसी को चूम लिया था, उन शहीदों की याद करने भी मेरे पास कोई नहीं आता। टीले वाली मस्जिद के इमाम मौलाना फजलुर्रहमान वायजी भले ही मेरा बखान करने से थकते नहीं हैं, लेकिन नमाज मेरे कानों में सुनाई पड़ती है तो कुछ देर के लिए ही सही मैं उन शहीदों की आत्मा की शांति के लिए दुआएं जरूर करता हूं। मुझे तो अब मुझे अपनी उम्र भी याद नहीं लेकिन मेरा वजूद जब तक रहेगा देशभक्तों की आत्मा की शांति के लिए मैं दुआएं करता रहूंगा।

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