Samvadi Season Six 2019: संवाद की सतरंगी दुनिया, यहां बात है विवाद नहीं Lucknow News
13 से 15 दिसंबर तक भारतेंदु नाट्य अकादमी में आयोजन।
लखनऊ [दुर्गा शर्मा]। जेहाद हमेशा ही सवालों के घेरे में रहा है। दहशतगर्द इसे धर्म से जोड़ते हैं तो तरक्कीपसंद इससे दूर भागते हैं। जेहाद क्या है? क्या दहशतगर्द जो कर रहे हैं, वह जेहाद है? पिछले साल संवादी का रोचक सत्र याद है ना? जी हां, सत्र का नाम था इस्लाम में द्वंद्व। किस तरह मौलानाओं ने अपने जवाबों से अंधेरे में रोशनी फैलायी थी। शिया धर्म गुरु मौलाना कल्बे जवाद और सुन्नी धर्म गुरु खालिद रशीद फरंगी महली दोनों ही इस पर एक राय थे कि दहशतगर्द जो भी कर रहे हैं, वह जेहाद नहीं कहा जा सकता। जेहाद खुदा की अजीम इबादत है। खून बहाना जेहाद नहीं। इतने गूढ़ विषय पर सार्थक चर्चा संवादी के मंच पर ही संभव है। जो भी संवादी का हिस्सा बना उसे आज भी याद है किस तरह मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली ने बुलंद आवाज में कहा था-
है राम के वजूद पर हिंदुस्तान को नाज
अहले नजर उनको समझते हैं इमामे हिंदू ।
आपको ‘अदब का लखनवी स्कूल’ सत्र भी याद होगा, जिसमें ये बात निकली थी कि लखनऊ में तो मुसलमानों ने भी कायस्थों से उर्दू सीखी है। दैनिक जागरण द्वारा पिछले पांच वर्षो से लखनऊ में आयोजित साहित्योत्सव संवादी ऐसे ही बड़े और जटिल प्रश्नों को उठाता आया है। ये सिर्फ मंचासीन वक्ताओं की अभिव्यक्ति का उत्सव नहीं है, यहां श्रोता भी वक्ता होते हैं। पूरे दमखम के साथ अपनी बात रखते हैं। भरपूर संवाद होता है, पर विवाद नहीं। विषय और विचार बांधे नहीं जाते। तभी तो, होंठ कटवा चुम्मा और रगड़ के धुना जैसी बातों के साथ कनपुरिया लफंगई और भागलपुर की रंगबाजी के साहित्य का हिस्सा बनने पर उठे सवाल के जवाब में युवा लेखक बोले-साहित्य कोई धर्म सभा नहीं। समाज में गंदगी है तो साहित्य में उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति होनी चाहिए। हम वो भाषा लिखेंगे जो अनपढ़ व्यक्ति को भी समझ आए। फिर चाहे वो गाली ही क्यों न हो। युवा लेखक प्रवीण कुमार, भगवंत अनमोल, क्षितिज राय और सिनीवाली शर्मा ने नई वाली हिंदू के समर्थन में अपना पक्ष बखूबी स्पष्ट किया। ये सवाल भी उठा कि क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ समय की गति के साथ कदमताल कर पाया? आरएसएस के जे. नंदकुमार ने कहा-समय संग बदला संघ, पर मूल भावना नहीं।
अब जब यादों की रेल चल पड़ी है तो वो सत्र भी जहन में आता है। जब संस्कृति को अंग्रेजी के शब्द कल्चर से जोड़कर देखने पर सोनल मान सिंह ने एतराज जताया था। उन्होंने समझाया, कल्चर ठहरा हुआ शब्द है और संस्कृति प्रवाहमान। संस्कृति आध्यात्मिक और मानसिक है जबकि कल्चर कृत्रिम। लखनऊ की बात संगीत के बिना तो अधूरी ही है। शास्त्रीय संगीत और टेक्नोलॉजी के सुर संवादी में ही आकर मिल सकते हैं। इसी को प्रमाणित किया था, गिरिजा देवी-राहत अली खां की शिष्या पद्मश्री मालिनी अवस्थी, शुभा मुद्गल और शांति हीरानंद की शिष्या विद्या शाह ने। दोनों ने एक सुर में कहा था-टेक्नोलॉजी और खुली सोच से संगीत के अच्छे दिन आए। वहीं ‘राष्ट्रवाद और देशभक्ति’ का चक्रव्यूह सत्र में आवाज उठी, राष्ट्रवाद को बीमारी बताने वालों का इलाज जरूरी। वो आंखें भी याद आती हैं जो जलियांवाला बाग कांड की त्रसदी को याद करके नम हुई थीं। जो लोग उप्र में रचनात्मकता पर सवाल उठाते हैं, उन्हें साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, वरिष्ठ साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी और शैलेंद्र सागर ने कहा था, चश्मा बदलिए, अब भी रचनात्मक है उत्तर प्रदेश।
वो सत्र भी भूल ही नहीं सकते। टीवी पर डिबेट में हमेशा लड़ते नजर आने वाले चेहरे भी संवादी के मंच पर एक राय थे। शाजिया इल्मी, अनुराग भदौरिया, द्विजेंद्र त्रिपाठी ने माना, हम लड़ते नहीं, लड़ाया जाता है। वहीं, मशहूर लेखिका और स्तंभकार शोभा डे ने फिल्म पत्रकारिता को पीआर जर्नलिज्म कह दिया था। साहित्य और रिश्ते पर भी गहन विमर्श हुआ था। मंच पर थीं स्त्री के विद्रोही तेवरों को शब्द देने वाली प्रसिद्ध कथाकार मैत्रेयी पुष्पा, कहानीकार सूर्यबाला। लेखिकाओं की बात का सार था- समय के दुर्दात चक्र में रिश्ते केंचुल की तरह उतरते चले जा रहे हैं और साहित्य भी इसका अपवाद नहीं, अक्स ही है। वेब की दुनिया की खिड़की भी खुली थी। फिल्म निर्माता अनुभव सिन्हा ने मां के पराठे से धर्म का संबंध भी दिखाया। कविता के रंग की महफिल भी सजी। क्या बिकता है? क्या छपता है? पर भी रोचक बातें हुईं। अभिनेता अली फैजल ने बड़े होते सिनेमा के कैनवास को दिखाया था। अभिनेता आशीष विद्यार्थी भी दर्शकों के सामने थे। दलित साहित्य पर गर्मागर्म विमर्श भी हुआ था। ये संवादी के मंच पर ही संभव है जब लेखिकाएं खुलकर भारतीय रोमांस पर बात करें। दिल की बात जुबान पर आई और कहा मुहब्बत कह लो या रोमांस.. बड़े काम की चीज है। इसके साथ ही खुलकर महिलाओं ने ये भी कहा था, हर दबी-सहमी स्त्री की आवाज है मीटू। संवादी की आखिरी शाम रुखसती की थी, मगर रुखसती से पहले सजी मुशायरे की महफिल। आज भी याद है वो शायराना अंदाज..।
..तो आइए, संवादी के सतरंगी रंग में रंगने को। साहित्य-संस्कृति के अथाह सागर में डूबने उतरने को। एक नये संसार को जानने-समझने को।