बाराबंकी का ज्वालामुखी मंदिर, जहां होता है संस्कृति-पर्यावरण और जल का संरक्षण

किंवदंती है कि करीब 500 वर्ष पहले माता दुर्गा ने अपने भक्त महाबली दास को स्वप्न में अपनी पांच बहनों के साथ कुएं में होने और मंदिर की स्थापना का निर्देश दिया था। साथ ही अन्य मूर्तियों को बताए गए स्थान पर स्थापित करने को कहा।

By Rafiya NazEdited By: Publish:Wed, 14 Apr 2021 01:53 PM (IST) Updated:Wed, 14 Apr 2021 01:53 PM (IST)
बाराबंकी का ज्वालामुखी मंदिर, जहां होता है संस्कृति-पर्यावरण और जल का संरक्षण
बाराबंकी के नवाबगंज तहसील के अंबौर गांव में स्थित ज्वालामुखी मंदिर।

बाराबंकी [रिशु गुप्ता]। आस्था का प्रतीक होने के साथ ही मंदिर सामाजिक व्यवस्था की मजबूती में अहम योगदान देते हैं। इन्हीं मंदिरों में एक है नवाबगंज तहसील के अंबौर स्थित ज्वालामुखी माता मंदिर। मंदिर परिसर में एक अघहरण और करीब तीस विभिन्न प्रजातियों के छायादार पेड़ होने के साथ आधा किलोमीटर के परिक्षेत्र में चार अन्य मंदिर भी हैं। ज्वाला देवी मंदिर से जुड़े यह मंदिर संस्कृति, पर्यावरण और जल संरक्षण का यह संदेश भी देते हैं।

यह है मान्यता : किंवदंती है कि करीब 500 वर्ष पहले माता दुर्गा ने अपने भक्त महाबली दास को स्वप्न में अपनी पांच बहनों के साथ कुएं में होने और मंदिर की स्थापना का निर्देश दिया था। साथ ही अन्य मूर्तियों को बताए गए स्थान पर स्थापित करने को कहा। इसके बाद सबसे पहले ज्वालामुखी माता की मूर्ति निकली, जिसे कुएं के पास ही स्थापित कराया गया। संतान और बेहतर स्वास्थ्य की मनौती पूरी होने पर गैर जनपदों से भी लोग यहां आते हैं।

देसी माता मंदिर : दूसरी माता देसी माता की मूर्ति निकली, जिसे बनवापुर में नीम के पेड़ के नीचे स्थापित किया गया। मान्यता है कि यहां पूजा करने से चेचक व अन्य बीमारी दूर हो जाती हैं। यह मंदिर हमारी मजबूत संस्कृति का संदेश देती है। अंबौर में स्थापित पाटन माता के दर्शन नवरात्र और अन्य शुभ कार्याें में करने आते हैं।

जंगल में की गई थी स्थापना : चौथी मूर्ति की स्थापना जंगल में की गई थी, जिन्हें जंगली माता के नाम से जाना जाता है। यहां बाधक शक्तियों की साया से मुक्ति के लिए भक्त आते हैं। जलाली माता यानी जलहरी माता का स्थान कुएं में ही है। जल संरक्षण का संदेश देने वाले इस कुएं की विवाह के मौके पर पूजा की जाती है।

समरसता का दे रहा संदेश: मंदिर के महंत संत दास ने बताया कि हमारे पूर्वज महंत महाबली दास (माली जाति) ने पूजन शुरू किया था। तब से चौथी पीढ़ी पूजा अर्चना करती है। यहां सभी जातियों के लोग आते हैं। परिवार के अन्य सदस्यों को भी हर सप्ताह मंदिर में सेवा करने का अवसर मिलता है।

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