UP Assembly Election 2022: ब्राह्मण नाम की लूट है, लूट सके तो लूट; जानिए- यूपी में इन दिनों राजनीति में जातिवाद का माहौल...
उत्तर प्रदेश में इन दिनों ब्राह्मणप्रेम का सिनेमा चल रहा है। फिल्म की निर्माता निर्देशक राजनीति है। गीत-संगीत भी उसी का है और फिल्म की रिलीज डेट निकली है जनवरी 2022। इन दिनों यह माहौल इस बात का उदाहरण है कि राजनीति समाज में किस कदर सड़ांध पैदा करती है।
लखनऊ [आशुतोष शुक्ल]। 2020 में पुलिस क्षेत्राधिकारी देवेंद्र मिश्र की हत्या। 2001 में श्रम संविदा बोर्ड के अध्यक्ष संतोष शुक्ल की क्रूर हत्या। पूर्व शिक्षक और कालेज प्राचार्य व प्रबंधक रहे सिद्धेश्वर पाण्डेय की हत्या। 2002 में शिवली नगर पंचायत के अध्यक्ष लल्लन वाजपेयी पर बमबाजी। लल्लन तो बच गए, पर जो तीन और लोग इस हमले में मारे गए उनमें दो ब्राह्मण थे-श्रीकृष्ण मिश्र और कौशल त्रिपाठी। फिर व्यापारी दिनेश दुबे की हत्या और फिर अजय मिश्र और जयप्रकाश की हत्या।
ये तिवारी, ये शुक्ल, ये मिश्र और ये वाजपेयी ब्राह्मण नहीं थे क्या? यदि थे तो इनकी हत्या करने वाले अपराधी विकास दुबे को ब्राह्मण उत्पीड़न का चेहरा बनाने का प्रयास क्यों? हालिया वर्षों के सबसे लोमहर्षक बिकरू कांड के कर्ताधर्ता विकास दुबे को ब्राह्मणों का प्रतीक पुरुष सिद्ध करने की बेल जब गत वर्ष सिरे न चढ़ सकी तो अब बहुजन समाज पार्टी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने विकास दुबे के शूटर अमर दुबे की पत्नी का मुकदमा लड़ने की घोषणा की है। शूटर के अपराध सरगना से कम माने जा सकते हैं क्या? घटना के समय एक हफ्ते की ब्याहता से सबकी सहानुभूति स्वाभाविक है, लेकिन उसकी गिरफ्तारी के एक साल बाद अगर यह उमड़ घुमड़ पड़ी है तो कारण उत्तर प्रदेश का आने वाला चुनाव है।
अमर दुबे की पत्नी की जमानत याचिका पहले कई बार रद हो चुकी है, लेकिन तब बसपा को उसकी याद नहीं आई। याद अब भी न आती अगर चुनाव न आते, अच्छे-बुरे कारणों से अगर इन दिनों ब्राह्मणों की पूछ न बढ़ी होती और अगर समाजवादी पार्टी आश्चर्यजनक रूप से ब्राह्मण-ब्राह्मण न कर रही होती। इस मुकदमे में प्रकारांतर से एक दुर्दांत अपराधी का महिमामंडन छिपा हुआ है। बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि शूटर की पत्नी का मुकदमा उसके दुबे होने के कारण लड़ा जाएगा। इस मुकदमे का उसके निर्दोष होने से कोई संबंध नहीं।
ब्राह्मण प्रेम का दूसरा चेहरा भी है। उसे देखने के लिए चलना होगा लगभग चार साल पहले जब रायबरेली के ऊंचाहार में पांच युवा निर्दोष ब्राह्मणों को जिंदा फूंक दिया गया था। आरोप लगा था भाजपा में आयातित होने के बाद पवित्र हुए सरकार के एक मंत्री पर जो अपने पूर्व पितृदल में रहते हुए सवर्णों पर हमेशा भद्दी टिप्पणियां करते थे। घटना बड़ी थी, लेकिन तब ऊंचाहार कांड पर न सपा बोली और न बसपा-भाजपा क्योंकि चुनाव साढ़े चार साल दूर थे और मनुवादी ब्राह्मणों का डीएनए विदेश में तलाशा जा रहा था। जवान मौतें जाति की वेदी पर बलि चढ़ा दी गईं, लेकिन राजनीति में लहर न पैदा हुई। जाति के घोड़े पर चुनावों में उतरने वाली राजनीति चुनावों के बाद कितनी भोली और निर्दोष हो जाती है, इसका भी उदाहरण है ऊंचाहार कांड।
उत्तर प्रदेश में इन दिनों ब्राह्मणप्रेम का सिनेमा चल रहा है। इस फिल्म की निर्माता, निर्देशक राजनीति है। गीत-संगीत भी उसी का है और फिल्म की रिलीज डेट निकली है जनवरी 2022। इन दिनों का यह माहौल इस बात का उदाहरण है कि राजनीति समाज में किस कदर सड़ांध पैदा करती है। उच्च सदन के नामांकन हों या टिकट बंटवारा, सब कुछ जाति ही तय करती है। अपवाद छोड़ दें तो नेता किसी पार्टी का हो, चुनाव उसी सीट से लड़ने जाएगा जहां उसकी बिरादरी के वोट अधिक होंगे। बड़े-बड़े नेता उस सीट से लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पाते जहां दूसरी बिरादरी के मत अधिक होते हैं।
अगड़े-पिछड़े और दलितों में बंटे समाज को जातिविहीन और एक करने का दायित्व जिस राजनीति का है, वह खुद उसी सड़े हुए तालाब की ऐसी मछली है जो उससे बाहर नहीं निकलना चाहती...! (लेखक दैनिक जागरण उत्तर प्रदेश के राज्य संपादक हैं )