कहानी उस वीरांगना की जिसने महज 21 वर्ष की आयु में चलाई गवर्नर पर गोली, यहां पढ़ें गौरव गाथा

वीरांगना क्रांतिकारी बीना दास का जन्म बंगाल में हुआ था। यहां के गवर्नर को विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह में आमंत्रित किया गया। यह सूचना प्राप्त होते ही बीना दास ने गवर्नर को मारने की योजना बनाई। इसी दीक्षांत समारोह में उन्हें अपनी डिग्री भी लेनी थी।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 27 Nov 2021 01:56 PM (IST) Updated:Sat, 27 Nov 2021 02:02 PM (IST)
कहानी उस वीरांगना की जिसने महज 21 वर्ष की आयु में चलाई गवर्नर पर गोली, यहां पढ़ें गौरव गाथा
जैसे ही गवर्नर भाषण देने के लिए खड़ा हुआ बीना दास ने तुरंत ही रिवाल्वर से गोली चला दी...

लखनऊ, विवेक मिश्र। यदि वक्त के पहिए को घुमाया जाए तो हम पाएंगे कि परतंत्रता की बेडिय़ों को तोडऩे में भारतीय वीरांगनाएं न सिर्फ पुरुषों के साथ-साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलीं, बल्कि अपना सर्वस्व अर्पित कर एक नया मुकाम हासिल किया। हालांकि स्वतंत्रता के बाद इस देश का दुर्भाग्य रहा कि हम इतिहास में दफन उन वीरांगनाओं की शौर्य गाथाओं को जनमानस तक नहीं पहुंचा पाए और इतिहास चंद कहानियों में सिमटकर रह गया। आज आपको परिचित कराते हैं बंगाल की वीरांगना क्रांतिकारी बीना दास से, जिन्होंने महज 21 वर्ष की आयु में बंगाल के गवर्नर स्टेनली जैक्सन पर गोली चला दी थी।

बीना दास का जन्म 24 अगस्त सन् 1911 को बंगाल के कृष्णानगर में हुआ था। इनके पिता बेनी माधव दास सुप्रसिद्ध अध्यापक थे, उनके शिष्यों की फेहरिस्त में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम भी सम्मिलित था। इनकी माता सरला दास सामाजिक कार्यों में संलग्न रहीं साथ ही वह निराश्रित महिलाओं के लिए पुण्याश्रम नामक एक संस्था की संचालिका भी थी। दरअसल इस आश्रम का मुख्य कार्य क्रांतिकारियों की सहायता करना था। इसमें क्रांतिकारियों के लिए शस्त्रों का भंडारण किया जाता था, जिससे ब्रिटिश सरकार को उसी की भाषा में जवाब दिया जा सके।

बीना दास ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात आगे की पढ़ाई करने के लिए बेथ्यून कालेज में दाखिला लिया। वर्ष 1926 में शरत चंद्र चट्टोपाध्याय ने पाथेर दाबी नामक एक उपन्यास लिखा। इस उपन्यास को लिखने का मूल उद्देश्य भारतीय जनमानस को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट करना था। यही कारण रहा कि ब्रिटिश शासन द्वारा इस उपन्यास को प्रतिबंधित कर दिया गया, लेकिन प्रतिबंध लगने के कारण भारतीय युवकों में पाथेर दाबी को पढऩे की उत्सुकता और बढ़ गई। इसका प्रथम संस्करण महज सात दिन में ही गुप्त रूप से बिक गया। क्रांति की च्वाला अपने हृदय में जलाए हुए बीना दास भला इसको पढऩे से कैसे पीछे रह सकती थीं? अतएव प्रतिबंधित होने के बावजूद उन्होंने गुप्त रूप से उपन्यास की एक प्रति प्राप्त कर ली।

बीना दास ने अपनी मैट्रिक की पढ़ाई न करके उपन्यास को पढऩा ज्यादा उचित समझा। हालांकि इससे उनकी परीक्षा पर काफी प्रभाव पड़ा। उपन्यास का प्रभाव इस कदर था कि जब उनसे अंग्रेजी की परीक्षा में पसंदीदा उपन्यास के बारे में पूछा गया तो उन्होंने पाथेर दाबी का विस्तार से वर्णन कर दिया। इसके परिणामस्वरूप उन्हें बहुत कम अंक प्राप्त हुए।

दो वर्ष पश्चात वह सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित बंगाल वालंटियर कारपस में सम्मिलित हो गई। वहीं पर कार्य करते हुए वह सहपाठी रहीं क्रांतिकारी सुहासिनी गांगुली की सहायता से बंगाल रिवाल्यूशनरी पार्टी में शामिल हुईं। यह समूह गुप्त रूप से अंग्रेजों के विरुद्ध कार्य कर रहा था। इससे जुड़े क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था।

छह फरवरी वर्ष 1932 को बंगाल के गवर्नर स्टेनली जैक्सन को विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह में आमंत्रित किया गया। यह सूचना प्राप्त होते ही बीना दास ने जैक्सन को मारने की योजना बनाई। उसी दीक्षांत समारोह में उन्हें अपनी डिग्री भी लेनी थी। अत: उन्होंने अपने युगांतर पार्टी के क्रांतिकारियों से राय मशविरा करके यह निर्णय लिया कि डिग्री लेते समय वह जैक्सन को अपनी गोली का निशाना बनाएंगी। जैसे ही गवर्नर जैक्सन भाषण देने के लिए खड़ा हुआ बीना दास ने तुरंत ही उस पर रिवाल्वर से गोली चला दी। गोली उसके कान को छूकर निकल गई और वह बच गया। साहसी बीना दास को वहीं गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर मुकदमा चलाकर अगले ही दिन नौ वर्ष की जेल हो गई।

वर्ष 1937 ई0 में प्रांतीय सरकार के गठन के पश्चात राजबंदियों को जेल से मुक्त कराने का आदेश दिया गया। इससे वह भी जेल से रिहा हुईं। फिर वह भारत छोड़ो आंदोलन में सम्मिलित हो गईं, किंतु अंग्रेजों में उनके नाम का भय इस कदर व्याप्त था कि उन्हें तीन साल तक नजरबंद रखा गया।

इसके पश्चात उन्होंने युगांतर के सदस्य रहे च्योतिष भौमिक से विवाह किया। फिर बीना दास राजनीति में सक्रिय हो गईं। वह वर्ष 1946 से 1951 तक बंगाल विधानसभा के सदस्य के रूप में भी चुनी गईं।

पति की मृत्यु के पश्चात वह कलकत्ता (अब कोलकाता) छोड़कर ऋषिकेश के एक आश्रम में आकर रहने लगीं। अपने स्वाभिमानी स्वभाव के चलते उन्होंने सरकार द्वारा दी जाने वाली पेंशन लेने से भी इन्कार कर दिया और जीवन निर्वाह करने के लिए अध्यापन का कार्य प्रारंभ किया।

स्वाधीनता के लिए सर्वस्व निछावर करने वाली इस वीरांगना के जीवन का अंतिम दौर बहुत कष्टप्रद रहा। कहते हैं उनका मृत शरीर 26 दिसंबर 1986 को छिन्न-भिन्न अवस्था में सड़क के किनारे मिला। पुलिस द्वारा लगभग एक माह तक छानबीन के पश्चात पुष्टि की गई कि यह शव बीना दास का ही है। महान क्रांतिकारी के जीवन का अंत इतना दु:खदायी होगा इसकी कल्पना भी नहीं की थी किसी ने...! स्वातंत्र्य भारत में कुछ कुत्सित विचारधाराओं के कारण बीना दास जैसी अनेकानेक वीरांगनाओं के योगदान को भुला दिया गया। आज आवश्यकता है इतिहास का पुनर्लेखन करने की ताकि हमारी आने वाली पीढिय़ां बीना दास जैसी वीरांगनाओं के त्याग और समर्पण को स्मरण रख सकें।

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