अपराजेय पौरुष का अमृतफल..., पढ़ें- यूपी विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित की जुबानी स्वाधीनता की अमर कहानी

भारत को एक राष्ट्र न मानने वाले कहते रहे कि भारत को अंग्रेजों ने राष्ट्र बनाया। सच यह है कि भारत दुनिया का प्राचीनतम राष्ट्र है। अथर्ववेद (12.1.45) में तत्कालीन समाज व राष्ट्र का सुंदर वर्णन है ‘अनेक आस्थाओं व भाषाओं वाले लोग एक परिवार की तरह यहां रहते हैं।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Publish:Sun, 22 Aug 2021 10:16 AM (IST) Updated:Sun, 22 Aug 2021 10:16 AM (IST)
अपराजेय पौरुष का अमृतफल..., पढ़ें- यूपी विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित की जुबानी स्वाधीनता की अमर कहानी
स्मरणीय है स्वाधीनता की प्राप्ति के पहले का इतिहास पौरुष पराक्रम।

भारत सांस्कृतिक राष्ट्र है। जीवन के सभी आयामों में भारत की प्रतिष्ठा है। विश्व भी शाश्वत जीवन की सीख लेने के लिए भारतभूमि की ओर देखता है। ऋग्वेद के रचनाकाल से भी पुरानी इस राष्ट्र की अनुभूति पर बहुत कुछ गर्व करने लायक है। हृदय नारायण दीक्षित बता रहे हैं कि आज जब हम स्वाधीनता के 75वें वर्ष में प्रविष्ट होकर अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो यह समय आत्म चिंतन के आह्वान और इतिहास बोध जागृत करने का भी है...

भारत एक सतत् उत्सव है। दिव्य अनुभूति, यथार्थ प्रतीति। सो आनंददायी महोत्सव। संप्रति भारत ब्रिटिश सत्ता से स्वतंत्र होने के 75 वर्ष का अमृत महोत्सव मना रहा है। ये 75 वर्ष विचारणीय हैं। स्वाधीनता की प्राप्ति के पहले का इतिहास पौरुष पराक्रम स्मरणीय है। इसके बीज भारत की सनातन संस्कृति में है। पूर्वजों ने इस बीज का सतत् पोषण किया है। बीज से पौध और पौध से फल तक श्रम कौशल वरेण्य है। इसी पौरुष पराक्रम का अमृतफल है स्वाधीनता का अमृत महोत्सव। भारत आनंद क्षेत्र है, लेकिन यहां एक के बाद एक विदेशी आक्रमण होते रहे। कुछेक विद्वतजन प्रश्न करते रहे हैं कि भारत बार-बार पराधीन क्यों हो जाता है?

यूरोप और यूरोपीय विचार के समर्थक कहते रहे कि भारत के लोग स्वतंत्रप्रिय नहीं हैं, इसलिए विदेशी हमलों के सामने पराजित होते रहे हैं, लेकिन यह धारणा सही नहीं है। बंकिमचंद्र ने भी इस धारणा का प्रतिकार किया है। उनका प्रश्न है कि अंग्रेजों ने भारत पर अपना राज्य कैसे कायम किया? भारतवासियों के एक वर्ग ने अंग्रेजों की मदद की, अंग्रेजों की देसी सेना में भारतवासी भी थे, लेकिन यहां होने वाले सभी विदेशी हमलों के प्रतिरोध का भी इतिहास है। अमृत महोत्सव इतिहास के प्रश्नों पर आत्म विवेचना का समय है।

अजेय रही भारतभूमि

यूरोपीय दृष्टिकोण वाले इतिहास लेखकों ने भारतीय जनता की स्वतंत्रप्रिय होने की अभिलाषा की भी उपेक्षा की है। सही बात यह है कि भारत ने प्रत्येक आक्रमण का प्रतिकार किया। ग्रीक लोग शत्द्र्रुह का अतिक्रमण करने में सफल नहीं हुए। चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा इन्हें भारतभूमि से खदेड़ा गया था। सिकंदर ने अनेक देश जीते थे, यूनानी लेखकों ने भारतीय पराक्रम की प्रशंसा की है। अरबों, तुर्कों और पठानों के हमलों के बाद लगभग 600 वर्ष की भारत की स्वाधीनता प्रश्नवाचक रही। 15वीं सदी तक आर्यों ने सभी आक्रमणकारियों का लगातार मुकाबला किया। यह आत्मगौरव का तथ्य है।

ऐसे दीर्घकालीन जनप्रतिरोधों की ओर भी ध्यान देना चाहिए। बंकिमचंद्र ने लिखा है, ‘अरब लोग एक प्रकार के दिग्विजयी रहे। जिस देश पर उन्होंने आक्रमण किया, उस देश पर तत्काल विजय प्राप्त की। वे केवल दो देशों से पराजित होकर वापस लौटे-पश्चिम में फ्रांस से और पूर्व में भारतवर्ष से। मोहम्मद की मृत्यु के छह वर्ष के भीतर उन्होंने मिस्र और सीरिया को, 10 वर्षों के भीतर परसिया (ईरान) को, एक वर्ष के भीतर, अफ्रीका और स्पेन को, 80 वर्ष के भीतर काबुल को, आठ वर्ष के भीतर तुर्किस्तान को संपूर्ण रूप से अधिकृत कर लिया था, लेकिन 300 वर्ष तक भारत विजय के लिए यत्न करने के बावजूद वे भारत को हस्तगत नहीं कर पाए। मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध को अधिकृत अवश्य किया, लेकिन राजपूतों के हाथों पराजित होकर वह खदेड़ दिया गया था और उसकी मृत्यु के कुछ ही दिन बाद सिंध पर राजपूतों ने पुन: अधिकार जमा लिया था। अरबों द्वारा भारत विजय संभव न हुई थी।’ यह राष्ट्रीय स्वाभिमान का विषय है।

उपलब्ध विविध आयामी दर्शन

भारत को एक राष्ट्र न मानने वाले कहते रहे कि भारत को अंग्रेजों ने राष्ट्र बनाया। सच यह है कि भारत दुनिया का प्राचीनतम राष्ट्र है। अथर्ववेद (12.1.45) में तत्कालीन समाज व राष्ट्र का सुंदर वर्णन है, ‘अनेक आस्थाओं व भाषाओं वाले लोग एक परिवार की तरह यहां रहते हैं।’ महाभारत (भीष्म पर्व) में है, ‘भारत में आर्य, किरात सिद्ध, वैदेह, ताम्र लिप्तक म्लेच्छ, द्रविण केरल मूषिक वनवासिक आदि रहते हैं। वे विशाल गंगा, सिंधु, सरस्वती नदियों का जल पीते हैं।’ यहां जनसमूहों के नाम अलग हैं, लेकिन अन्न-जल एक है।

माक्र्सवादी चिंतक डा. रामविलास शर्मा ने ‘भारतीय नवजागरण और यूरोप’ में लिखा है- ‘अथर्ववेद और महाभारत में अनेक जातियों के राष्ट्र का जैसा वर्णन है, वैसा अन्यत्र नहीं। इसलिए राष्ट्र निर्माण में भारत को विश्व का मार्गदर्शक मानना चाहिए।’ यहां प्रकृति के प्रपंचों के प्रति अतिरिक्त जिज्ञासा थी। सो विविध आयामी दर्शन का जन्म हुआ। भारत सनातन है। सदा से है। दुनिया के अन्य देशों को राष्ट्र राज्य कहने का चलन यूरोप के पुनर्जागरणकाल में हुआ, लेकिन भारत 5,000 साल प्राचीन अनुभूति है। राष्ट्र की अनुभूति ऋग्वेद के रचनाकाल से भी पुरानी है।

जगी स्वाधीनता की अलख

1942 का आंदोलन ब्रिटिश सत्ता के लिए बड़ी चुनौती बना था। इसके पूर्व गांधी जी के नेतृत्व में लगातार अभियान चले थे। अन्य तमाम संगठन भी सक्रिय थे। 1920-30 के मध्य तमाम क्रांतिकारी गतिविधियां थीं। भारत का वातावरण अग्नि धर्मा था। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि का पराक्रम स्तुत्य है और नेताजी सुभाष चंद्र का भी। लाखों लोग प्राणों की आहुति देने के लिए तत्पर थे। भारत स्वाधीन हुआ। कुछ विदेशी विद्वान 1857 के स्वाधीनता संग्राम को सिपाहीवार कहते रहे हैं। 1857 का संग्राम भारतीय इतिहास का स्मणीय अध्याय है। जनरल मैक्डोवल ने 1857 के संग्राम के पहले भारतीय जनता की मनोदशा के बारे में लिखा था कि ‘विदेशी आक्रमण और आंतरिक विद्रोह से ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश आम जनता की बातचीत का चर्चित विषय है।’

तमाम अंग्रेज विद्वानों ने उस समय की स्वाधीनता की मनोदशा का विवरण दिया है। 1855-56 में संथालों का विद्रोह राष्ट्रव्यापी चर्चा में आया था। 1820 में विद्रोह हुआ था, 1839 में कोली लोगों ने विद्रोह किया। अवध में वजीर अली का विद्रोह हुआ था। इस तरह 1857 का स्वाधीनता संग्राम भारत के मन में स्वाधीनता की अलख जगाने में कामयाब हुआ।

श्रेष्ठतम वरदानों का स्थल

मैक्समूलर अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान थे, उन्होंने 1982 में आई.सी.एस. अंग्रेज युवकों के प्रशिक्षण के दौरान कुछ व्याख्यान दिए थे। ये व्याख्यान ‘ह्वाट इंडिया कैन टीच अस’ में संकलित हैं। उन्होंने कहा है, ‘यदि मुझसे कोई पूछे कि किस आकाश के नीचे मानव मस्तिष्क ने अपने श्रेष्ठतम वरदानों को पूर्णता से विकसित किया है और कुछ ऐसे प्रश्नों का हल पा लिया है जो उन लोगों का भी ध्यान आकर्षित कर सकता है, जिन्होंने प्लेटो और कांट का अध्ययन किया है- तो मैं भारत की तरफ इशारा करूंगा और यदि कोई पूछे कि हम यूरोप के रहने वालों को, जिन्हें यूनानियों और यहूदियों के विचारों पर लगभग पूरी तरह से पोषित किया, उन्हें किस साहित्य से ऐसी सीख मिलेगी, ताकि हम अपना आंतरिक जीवन अधिक पूर्ण, अधिक वैश्विक, अधिक मानवीय और न सिर्फ वर्तमान जीवन, बल्कि एक शाश्वत जीवन बना सकने वाली सीख प्राप्त कर सकते हैं, तो मैं फिर से भारत की ओर इशारा करूंगा।’

दीर्घकालिक इतिहास पर हो नजर

भारत का मन सांस्कृतिक है। विवेकानंद ने भारतीय दर्शन को सारी दुनिया में पहुंचाया था। दयानंद लोक जागरण में लगे थे। प्राचीन साहित्य में उपनिषद दर्शन की अपनी भूमिका रही है। महाकाव्य काल में महाभारत और रामायण ने भारत का मन गढ़ा। कंबन, सुब्रह्मण्य भारती जैसे दक्षिण भारतीय विद्वानों ने सांस्कृतिक तत्व को मजबूत किया था। भारत सांस्कृतिक राष्ट्र है। भक्ति आंदोलन भी निराशा से आशा में ले जाने वाला सांस्कृतिक कर्म था। अमृत महोत्सव के अवसर पर बहुत कुछ गर्व करने लायक है।

दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है। दर्शन और ज्ञान-विज्ञान में भी उपलब्धियां हैं। जीवन के सभी आयामों में भारत की प्रतिष्ठा है। योग और ऋग्वेद को यूनेस्को ने मान्यता दी है। गरीबी से निर्णायक संघर्ष है। हम सबको भारत के दीर्घकालिक इतिहास पर ध्यान देना चाहिए। इतिहासबोध जरूरी है। यह इतिहासबोध ही भारत को प्रत्येक स्तर पर अपराजय और रिद्धि-सिद्धि से परिपूर्ण राष्ट्र बना सकता है। आत्मचिंतन समय का आह्वान है। सचेत जागरण से भारत प्रसादपूर्ण होगा।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं)

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