झूला झूलन चलो गजनार 52 झूला डरे... आज भी बुंदेलखंड में झूले की परंपरा है जीवित

गांव निवासी वृद्वा बेटी बाई बताती हैं सावन आने का उन्हें आज भी बेसब्री से इंतजार रहता है। एक समय था जब सावन माह के आरंभ होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ पर झूले पड़ जाते थे। महिलाएं गीतों के साथ उसका आनंद उठाती थीं

By Akash DwivediEdited By: Publish:Fri, 13 Aug 2021 01:13 PM (IST) Updated:Fri, 13 Aug 2021 01:13 PM (IST)
झूला झूलन चलो गजनार 52 झूला डरे... आज भी बुंदेलखंड में झूले की परंपरा है जीवित
पुरानी परंपरा के अनुसार झूला शगुन माना जाता है

कानपुर, जेएनएन। सावन माह में आज भी बुंदेलखंड के गांवों में झूला काफी लोकप्रिय है। भले ही उनकी संख्या कम हो गई है लेकिन बुजुर्ग लोग कहते हैं कि तीस से चालीस साल पहले का माहौल कुछ और ही होता था। शाम ढलते ही घरों की नई नवेली दुल्हन सावन गीत गाने निकल पड़ती थीं। झूला झूलन चलो गजनार 52 झूला डरे...आदि गीत के स्वर गूंजते रहते, मोहल्ला-मोहल्ला नीम के पेड़ पर झूला पड़े रहते और वहां देर शाम तक भीड़ रहती थी। पुरानी परंपरा के अनुसार झूला शगुन माना जाता है।

पनवाडी ब्लाक के भरवारा गांव निवासी वृद्वा बेटी बाई बताती हैं, सावन आने का उन्हें आज भी बेसब्री से इंतजार रहता है। एक समय था जब सावन माह के आरंभ होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ पर झूले पड़ जाते थे। महिलाएं गीतों के साथ उसका आनंद उठाती थीं। समय के साथ पेड़ गायब होते गए और बहुमंजिला इमारतों के बनने से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परम्परा से गायब हो रहे हैं। अब सावन माह में झूले कुछ जगहों पर ही दिखाई देते हैं। जन्माष्टमी पर मंदिरों में सावन की एकादशी के दिन भगवान को झूला झुलाने की परंपरा जरूर अभी भी निभाई जा रही है। वर्षा ऋतु की खूबियां अब किताबों तक ही सीमित रह गई हैं। आज से दो दशक पहले तक झूलों और मेंहदी के बिना सावन की परिकल्पना भी नहीं होती थी। 80 वर्षीय देवकली कहती हैं, सावन में प्रकृति श्रृंगार करती है जो मन को मोहने वाला होता है। यह मौसम ऐसा होता है जब प्रकृति खुश होती है तो लोगों का मन भी झूमने लगता है। भगवान श्रीकृष्ण राधा संग झूला झूलते और गोपियों संग रास रचाते थे। इन झूलों के नहीं होने से लोक संगीत भी सुनने को नहीं मिलता है।

सावन गीत

मोरे आगंवा में तुलसी के वृक्षवा जुगीया तो फेरी दे दे जाए, माई मोरी जोगी भोवर को राछरे लौट जा रे, जुगीया मुरक जा रे जुगीया घरे नहिया सासो हमारी। आंसो के सावन घरे करो राजा, पर के करो परदेश राजा, आसो के सावन सुहाने, आसो के सावन राजा झूला रे झुल्हो झुलन सखिन संग जाव राजा आसुन के सावन सुहाने।

बहन-बेटियां मायके बुला ली जातीं थीं : गांव की बुजुर्ग सीता देवी बताती हैं कि सावन के नजदीक आते ही बहन-बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं। पेड़ों पर झूला डाल कर झूलती थीं। झुंड के रूप में एकत्र होकर महिलाएं दर्जनों सावनी गीत गाया करती थीं। त्योहार में बेटियों को ससुराल से बुलाने की परंपरा आज भी चली आ रही है, लेकिन जगह के अभाव में न तो कोई झूला झूल पाता है और न ही अब मोर, पपीहा व कोयल की सुरीली आवाज ही सुनने को मिलती हैं।

बदलाव की बयार : पहले संयुक्त परिवार में बड़े-बूढ़ों के सानिध्य में लोग एक दूसरे के घरों में जुड़ते थे। जबकि एकल परिवार ने इस आपसी स्नेह को खत्म कर दिया है। बुजुर्ग मेवालाल कहते हैं कि अब महिलाएं कम्यूनिटी सेंटर में तीज पर्व मनाती हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से सभी एक दूसरे के साथ खुशियां बांटती हैं। सावन के झूले कहां हैं। लान में लोहे व बांस के झूले लगा लिए और हो गया परम्परा का निर्वाह। अब तो पहनावा भी आधुनिकीकरण की भेंट चढ़ गया है।

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