पुण्यतिथि पर विशेष: कहानी भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार की जिन्होंने सामाजिक समता के लिए समर्पित किया जीवन

डा. भीमराव आंबेडकर जातिवाद व अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए संघर्ष करने वाले शिक्षाविद-विचारक तथा समाज सळ्धारक ही नहीं महान राष्ट्रीय नायक थे। उन्होंने अपने आंदोलनों में राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखा संस्कृति पर विचार किया सामाजिक विकृतियों का निदान करने के लिए संघर्ष किया।

By Shaswat GuptaEdited By: Publish:Sat, 04 Dec 2021 05:39 PM (IST) Updated:Sat, 04 Dec 2021 05:39 PM (IST)
पुण्यतिथि पर विशेष: कहानी भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार की जिन्होंने सामाजिक समता के लिए समर्पित किया जीवन
डा. भीमराव आंबेडकर की खबर से संबंधित सांकेतिक फाेटो।

[डा. भीमराव आंबेडकर की आने वाली पुण्यतिथि पर किशोर मकवाणा का आलेख]। डा. भीमराव आंबेडकर के राष्ट्रीय योगदान का आज तक सही आकलन-मूल्यांकन नहीं हुआ। उनके जीवन दर्शन को हम जानने-समझने का प्रयत्न करते हैं तो एक बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि उनका पूरा जीवन दो लक्ष्यों पर केंद्रित, समर्पित था। एक, शोषित-पीड़ित बांधवों की सेवा और दूसरा, राष्ट्रहित सर्वोपरि। बाबासाहेब आंबेडकर अपने जीवनकाल में सामाजिक और राष्ट्र जीवन के अनेक पहलुओं पर कार्य करते रहे। कई बार कुछ लोग उनके जीवन कार्य के किसी एक पहलू पर अधिक बल देकर या प्रचारित कर इस प्रकार की बातें करते हैं कि यही उनका जीवनकार्य था, जबकि यह इस महामानव के प्रति अन्याय है और उनका अधूरा विश्लेषण भी।

तोड़े अड़चनों के पहाड़

डा. आंबेडकर का जीवन विशाल एवं विराट है। उन पर चिंतन, अध्ययन, लेखन शोधपरक है और उनका संघर्ष अतुलनीय है। डा. आंबेडकर का व्यक्तित्व विविधायामी है। उन्होंने अभावों, अपमानों और अड़चनों के पहाड़ों को तोड़कर अपने सामथ्र्य और मेधा से सर्वोच्चता प्राप्त की थी। उन्होंने स्वतंत्रतापूर्व ही आत्मनिर्भर और आधुनिक भारत की नींव रख दी थी। उनके सपने का भारत ऐसा भारत था जो आर्थिक रूप से संपन्न, तकनीकी रूप से उन्नत और सभी को समान अवसर देने वाला राष्ट्र होता। भारतमाता के इस सपूत ने अपने कार्य, स्वप्न और विचारों को पूरा करने के लिए जीवन समर्पित किया था। उनका मत था कि अगर सामान्य व्यक्ति को ऊपर उठाना है तो शिक्षा अति आवश्यक है। इसलिए जब वे कहते थे कि ‘सीखो’, तब यह उनका कोरा उपदेश नहीं होता था। स्वयं उन्होंने एम.ए., पी.एचडी., एम.एससी., डी.एससी., बैरिस्टर आफ ला, एल.एल.डी. आदि उपाधियां अर्जित की थीं।

कालजयी जीवन के चार कालखंड

डा. आंबेडकर के जीवन के स्वाभाविक रूप से चार कालखंड बनते हैं। प्रथम कालखंड सामान्यत: 1920 से 1935 तक माना जाता है। इस कालखंड की प्रमुख घटनाएं हैं- महाड़, कालाराम मंदिर, पर्वति सत्याग्रह, गोलमेज परिषद, साइमन कमीशन के आगे निवेदन और पुणे पैक्ट। इस कालखंड में डा. आंबेडकर की वैचारिक भूमिका-अस्पृश्यता की समाप्ति, हिंदू समाज में जाति निर्मूलन और स्वतंत्रता, समता और बंधुता-इन तत्वत्रयी पर समाज की पुनर्रचना की रही है। उनके जीवन का दूसरा कालखंड 1935 से 1947 तक का था। 1935 में उन्होंने येवला में घोषणा की थी, ‘मैं हिंदू के रूप में जन्मा अवश्य हूं, लेकिन हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं।’ इसी कालखंड में उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की। 1942 में उसे बर्खास्त करके शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना की। कारण था कि क्रिप्स कमीशन भारत से लौट गया था। संविधान सभा की प्रक्रिया आरंभ हो गई थी। मुसलमानों को पाकिस्तान और हिंदुओं को खंडित भारत मिलने वाला था। बनने वार्ला हिंदुस्तान एक मायने में बहुसंख्यक हिंदुओं का राज्य होने वाला था, लेकिन ध्यान रहे, डा. आंबेडकर वैसा नहीं मानते थे। उनके जीवन का तीसरा कालखंड संविधान निर्माण तथा चौथा कालखंड 1949 से 1956 तक का है।

जगाई आत्मसम्मान की ज्योति

डा. आंबेडकर का राष्ट्र निर्माण में सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने समाज के निचले तबके के मनुष्यों को जगाया। निचले तबके के मनुष्यों को सोचने के लिए प्रवृत्त किया, उनमें आत्मसम्मान की ज्योति जगाई। स्वाभिमान की प्रेरणा जगाई और मूल्यों के लिए जीना-मरना सिखाया। महाड़ सत्याग्रह सम्मेलन (25 दिसंबर 1927) में डा. आंबेडकर ने कहा था, ‘अस्पृश्यता निवारण का कार्र्य ंहदू समाज को बलशाली बनाएगा। इसीलिए मैं कहता हूं कि सामाजिक सुधार का यह कार्य सिर्फ हमारे हित में नहीं, बल्कि देश हित में है। हमें पक्षपात, समाज के अमानवीय ढांचे को बदलना होगा, ताकि हमारा देश मजबूत हो सके।’ 1920 से पहले राष्ट्रजीवन में यह बात कहीं भी नहीं थी कि समाज के निचले तबके और जाति-व्यवस्था के अंतिम पायदान पर खड़े मनुष्य को राष्ट्र निर्माण में सहभागी बनाना चाहिए। ऐसा कोई नहीं चाहता था। मगर बाबासाहेब आंबेडकर ने इसे संभव करने के बीज बो दिए। आज वंचित समाज का व्यक्ति राष्ट्रपति, राज्यपाल, मंत्री बन सकता है। विश्वविद्यालय का कुलपति बन सकता है। साहित्य, संगीत, कला, सिनेमा, नाट्य, आर्थिक संस्था, राजनय आदि हर संभव क्षेत्र में निचले तबके के व्यक्ति की पहुंच है। राष्ट्र निर्माण के संदर्भ में इसका क्या महत्व है? क्या यह किसी विशिष्ट जाति की उन्नति का ही प्रश्न है अथवा राष्ट्रीय समस्या है? राष्ट्र से वंचित करोड़ों लोगों को डा. आंबेडकर ने राष्ट्र जीवन में सहभागी बनाने की व्यवस्था बनाकर जो राष्ट्र सेवा की है, उसका कोई मोल नहीं आंक सकता है।

अस्वीकृत किए कई मत

राष्ट्र का विचार अर्थात जन का विचार, भूमि का विचार, संस्कृति का विचार है। इस संदर्भ में जन का विचार करते समय बाबासाहेब ने ‘शूद्र पहले कौन थे?’ नामक पुुस्तक में आर्य आक्रमण सिद्धांत को अस्वीकृत किया है। डा. आंबेडकर ने लिखा था, ‘ऋग्वेद में अर्य और आर्य, ऐसे दो शब्द आते हैं। अर्य शब्द 88 स्थानों पर आया है, इसका अर्थ है- 1. शत्रु, 2. माननीय पुरुष, 3. देश का नाम, 4. मालिक। आर्य शब्द 31 स्थानों पर आया है, परंतु जाति के अर्थ में नहीं। अत: आर्य शब्द से मानव की जाति विशेष निश्चित नहीं होती।’ लोकमान्य तिलक का सिद्धांत भी उन्होंने अस्वीकृत किया है। उन्होंने लिखा है, ‘अश्व वैदिक आर्यों का पसंदीदा जीव है, लेकिन क्या आकर्टिक प्रदेश में अश्व थे? इस प्रश्न का उत्तर अगर न में आता है तो तिलक का यह सिद्धांत कि ‘आर्यों का मूलस्थान आकर्टिक प्रदेश में था’, पंगु बन जाता है।’ बाबासाहेब ने बताया है, ‘वैदिक आर्यों का मूल स्थार्न ंहदुस्तान में ही होगा, इस बात के सबूत वैदिक साहित्य में ही प्राप्त होते हैं।’ बाबासाहेब का यह प्रतिपादन भारतीय राष्ट्रवाद के संदर्भ में अत्यंत मौलिक है।

भारतीय परंपरा के महान धर्मपुरुष

जाति को लेकर बाबासाहेब के विचार ठीक से समझ लेना आवश्यक है। यह मत उन्होंने ‘कास्ट इन इंडिया’ नामक प्रबंध में भी प्रस्तुत किया है। हिंदू समाज अनगिनत जातियों से बना है, यह बात सही है। यूरोपीय इतिहासकार, समाजशास्त्री इन जातियों को विभिन्न वंश बताते हैं, लेकिन यह सत्य नहीं है, ऐसा बाबासाहेब का मत था। बाबासाहेब स्पष्ट कहते हैं, ‘हम एक संस्कृति के सूत्र में बंधे हुए हैं।’ 1949 को संविधान सभा के आखिरी भाषण में उन्होंने कहा, ‘जातियां राष्ट्र विघातक हैं। जल्द ही हमें उनसे मुक्त होना चाहिए।’ एक अन्य भाषण में उन्होंने कहा, ‘मेरे विचार में जातिरहित संघ बनकर हिंदू समाज आत्मरक्षा हेतु अधिक शक्तिशाली बन जाता है तो ही उससे कुछ आशा कर सकते हैं अन्यर्था ंहदुओं का स्वराज गुलामी के गर्त में उतरने का एक पायदान सिद्ध होगा।’ बाबासाहेब ने एक अलग संदर्भ में हिंदू संस्कृति की कड़ी आलोचना भी की है। नागपुर में दीक्षा भूमि पर बौद्ध धर्म स्वीकार करते समय उन्होंने कहा था, ‘मैंने गांधी जी को वचन दिया था कि हिंदू धर्म छोड़ते और नए धर्म को स्वीकार करते समय मैं इस देश की संस्कृति को कम से कम आहत करने वाला मार्ग चुनूंगा। आज मैं उस वचन को निभा रहा हूं। इतिहास में मुझे विध्वंसक के नाते पहचाना जाए, ऐसी मेरी इच्छा नहीं है।’ बाबासाहेब जिस प्रकार संविधान के शिल्पकार हैं उसी प्रकार वे भारतीय परंपरा के महान धर्मपुरुष हैं।

समान नागरिकता कानून के पक्षधर

जब हिंदू कोड बिल का विषय चल रहा था तब ‘केवल हिंदुओं के लिए नागरिक संहिता क्यों? भारत में मुस्लिम, ईसाई, यहूदी और पारसी भी रहते हैं। फिर सभी के लिए समान नागरिक संहिता क्यों नहीं?’ का सवाल खड़ा हुआ था। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को मूलभूत अधिकार देता है। डा. आंबेडकर को इन मूलभूत अधिकारों और विभिन्न नागरिक कानूनों के बीच संघर्ष की पूरी कल्पना थी। मुस्लिम पर्सनल ला बाबासाहेब को मंजूर नहीं था, वे तो समान नागरिक कानून के पक्षधर थे। उनका स्पष्ट मत था कि सेक्युलर राज्य में व्यक्ति के जीवन पर नियंत्रण रखने का अधिकार धर्म को नहीं दिया जा सकता।

जल संरक्षण के भविष्यदृष्टा

बाबासाहेब ने जन की संस्कृति की तरह इस भूमि का भी विचार किया है। ‘एनशिएंट इंडियन कामर्स’ लेख में भारत का वर्णन उनके ही शब्दों में इस प्रकार है- ‘भारतभूमि समृद्ध भूमि थी। इसीलिए वह अनेक आक्रांताओं के हमलों की शिकार बन गई।’ प्राकृतिक संसाधनों के बारे में बाबासाहेब का स्वतंत्र दृष्टिकोण था। खेती का राष्ट्रीयकरण होना चाहिए। उस पर निजी अधिकार समाप्त करने चाहिए। खेती की उत्पादकता उसके आकार पर नहीं बल्कि उर्वरक, मानव संसाधन, जन आदि पर निर्भर करती है। डा. आंबेडकर वायसराय के कार्यकारी मंडल में 1942 से 1946 तक श्रम मंत्री थे। जलसंपदा विभाग का कार्यभार भी उन पर था। बाबासाहेब जब केंद्रीय मंत्री बने तब उनके कार्यकाल में दामोदर नदी पर हीराकुंड बांध परियोजना शुरू हुई थी। सबसे पहले बाबासाहेब ने ही ‘नदी जोड़’ विषय रखा था। आज हम नदी जोड़ परियोजना पर बहस करते हैं, लेकिन इस बात को भूल जाते हैं कि यह अवधारणा बाबासाहेब ने वर्ष 1944 में ही रख दी थी।

तीन तत्वों पर आधारित अवधारणा

एक राष्ट्र की भावना कैसे निर्मित हो पाएगी? यह डा. बाबासाहेब के चिंतन का अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू था। बाबासाहेब के शब्दों में बताएं तो, इससे ‘सह अस्तित्व की भावना’ निर्मित नहीं होती है। एक तरफ सांस्कृतिक एकता है, भौगोलिक अखंडता है। इसके साथ ही यहां लोगों को एक-दूसरे से विभक्त करने वाले वंश और पंथ हैं। जन, भूमि और संस्कृति, ये तीन घटक राष्ट्रवाद की जगमान्य त्रिमिति हैं मगर उनसे ही राष्ट्र नहीं बनता है। यह बाबासाहेब ने अलग तरीके से समझाया है। चौथी मिति है सर्वत्र बंधुभाव। हम सब एक ही परमात्मा की संतान हैं। हम सभी में एक ही आत्मतत्व विद्यमान है। बाबासाहेब लोकतंत्रवादी थे। उनकी लोकतंत्र की अवधारणा तीन तत्वों पर आधारित थी-स्वतंत्रता, समता और बंधुता। बाबासाहेब हमारे सामने सामाजिक न्याय पर आधारित संविधानमूलक लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की संकल्पना रखते हैं। राष्ट्र निर्माण में डा. आंबेडकर का यह योगदान अलौकिक है। (लेखक नेहरू स्मारक संग्रहालय व पुस्तकालय सोसाइटी के सदस्य हैं)

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