नरम दल के गरम तेवर.., ऐसे थे शहजहांपुर के क्रांतिकारी बाबूराम शर्मा

शाहजहांपुर में 1929 में महात्मा गांधी की एक सभा में असहयोग आंदोलन से जुड़ने की अपील सुनकर बाबूलाल शर्मा नरम दल के आंदोलन से जुड़ गए लेकिन उनकी वाणी के क्रांतिकारी तेवर लोगों पर गहरा असर करते थे।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Publish:Sun, 07 Nov 2021 02:57 PM (IST) Updated:Sun, 07 Nov 2021 05:33 PM (IST)
नरम दल के गरम तेवर.., ऐसे थे शहजहांपुर के क्रांतिकारी बाबूराम शर्मा
दो दलों में बंटे थे स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारी।

स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले लोग दो दलों में बंटे थे। अहिंसा के पक्षधर नरम दल में, तो क्रांति की मशाल लेकर बढ़ रहे लोगों को गरम दल का माना जाता था। शाहजहांपुर के बाबूराम शर्मा ऐसे क्रांतिकारी थे, जो गांधीवादी तो थे, मगर वाणी इतनी ओजपूर्ण थी कि श्रोताओं के मन में दहक उठती थी आजादी की ज्वाला..., लेखक प्रशांत अग्निहोत्री बता रहे हैं.. शहीद बाबूराम शर्मा जी की क्रांति गाथा।

वर्ष 1927 में शाहजहांपुर के राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां और रोशन सिंह को काकोरी प्रकरण में फांसी हो चुकी थी। लोगों में अंग्रेजों के खिलाफ आक्रोश था। यह ज्वालामुखी भीतर ही भीतर धधक रहा था। ऐसे में करीब दो वर्ष तक शाहजहांपुर के क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ तैयारी करते रहे। दो वर्ष बाद 1929 में शहर में महात्मा गांधी ने एक सभा को संबोधित किया। इस सभा में बाबूराम शर्मा भी असहयोग आंदोलन से जुड़ने की अपील सुन रहे थे। इसके बाद बाबूलाल शर्मा नरम दल के आंदोलन से जुड़ गए, लेकिन उनकी वाणी के क्रांतिकारी तेवर लोगों पर गहरा असर करते थे। उन्होंने गृहक्षेत्र कांठ के आस-पास के लोगों को अंग्रेज सरकार के खिलाफ जोड़ना शुरू कर दिया। इनके जरिए वह आंदोलन को बंडा से हरदोई तक ले गए।

गांधी जी की सभा के कुछ दिनों बाद ही उन्होंने सदर तहसील में हड़ताल करा दी। एकजुटता दिखाने के लिए आस-पास के दर्जनों गांव के लोग जुट गए। इतनी जल्दी सफल हुई हड़ताल से हर कोई जान चुका था कि बाबूराम शर्मा ने जनमानस का मिजाज समझ लिया था।

युवा होते ही मुखर स्वर

कांट के अख्तियारपुर गांव में 16 अक्टूबर, 1909 को रामेश्वर दयाल के घर जन्मे बाबूराम शर्मा ने होश संभाला तो आस-पास आजादी के आंदोलन को फलते-फूलते देखा। अंग्रेज सरकार के जुल्म देखते हुए वयस्क हो रहे बाबूराम शर्मा मात्र 21 वर्ष की उम्र में ही विरोध के लिए मुखर हो गए। बाबूराम शर्मा को रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां और रोशन सिंह की फांसी बहुत गुस्सा दिलाती थी। क्रांतिकारी विचारों के बावजूद वे गांव-गांव में गांधीवादी विचारों को शस्त्र बनाकर लड़ाई को बढ़ा रहे थे, ताकि अंग्रेज ज्यादा बाधा खड़ी न कर सकें। वे गांव-गांव भ्रमण कर महात्मा गांधी के विचारों से लोगों को अवगत कराते। इस दौरान बाबूराम शर्मा अंग्रेजों के अत्याचारों का जो खाका अपने भाषणों से खींचते, उससे लोगों के मन में आजादी की ज्वाला को हवा मिलती थी।

सिर्फ दो साल में कारवां इस तरह बढ़ने लगा कि वर्ष 1931 में कांट में बाबूराम शर्मा ने कांग्रेस के सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें इतनी भीड़ जुटाई कि वह क्षेत्र में नए संग्राम का शंखनाद कर गई। तीन क्रांतिकारियों की फांसी के बाद गुस्साए क्षेत्र के लोगों को बाबूराम शर्मा से प्रेरणा मिली। बंडा से आगे हरदोई तक उन्होंने भरखनी, पचदेउरा, बांसखेड़ा, लखनौर जैसे क्षेत्रों के लोगों को भी आंदोलन से जोड़ लिया। उनकी बढ़ती गतिविधियां देख अंग्रेज सरकार द्वारा 22 अप्रैल, 1941 को बाबूराम शर्मा को छह माह की जेल की सजा और 75 रुपए का जुर्माना लगाया गया। बाबूराम शर्मा ने स्वजन को जुर्माना जमा नहीं करने दिया। इस पर तीन माह सजा बढ़ा दी गई। इसके बाद भी वह जेल से छूटकर आए और फिर आंदोलन में सक्रिय हो गए।

दोबारा गिरफ्तारी में हुए नजरबंद

अगस्त, 1942 में महात्मा गांधी की गिरफ्तारी हुई तो विरोध में बाबूराम शर्मा समर्थकोंं के साथ सड़कों पर निकल पड़े और अंग्रेजों की व्यवस्था ध्वस्त करने लगे। इसके तहत निगोही के टिकरी में उन्होंने रेल पटरी काट दी। स्टेशनों को जोड़ने वाली टेलीफोन लाइन नष्ट कर दी। बाबूराम शर्मा सूचना तंत्र बाधित कर असहयोग आंदोलन में हो रहीं गिरफ्तारियां रोकना चाहते थे। हालांकि उन्हेंं उसी दिन दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया और इस बार अनिश्चित काल तक जेल में नजरबंद कर दिए गए।

पार्थिव देह से भी घबराए अंग्रेज

उस समय स्वतंत्रता सेनानी बसंतलाल खन्ना व मुक्ताप्रसाद मिश्र भी जेल में बंद थे। बाबूराम शर्मा के दौर की याद ताजा करते हुए वे बताते थे, ‘उनसे किसी को मिलने नहीं दिया जाता था। एकांत में रहते हुए 22 सितंबर, 1943 को वह भारत मां की स्वतंत्रता की कामना करते हुए दुनिया से विदा हो गए। हम दोनों को भी यह बात दोपहर को पता चली मगर, शव देखने नहीं दिया गया। जेल में चर्चा थी कि बाबूराम को जहर दिया गया है। इसीलिए उनका शव स्वजनों को नहीं दिया गया। अंग्रेजों को उनकी पार्थिव देह से भी डर था कि यदि उसे गांव भेजा गया तो विरोध की ज्वाला और भड़क जाएगी। उस समय एक प्रभावी सेठ बनवारी लाल ने हस्तक्षेप किया। बाबूराम शर्मा के चाचा के परिचित सेठ बनवारी लाल ने अंग्रेजों को आश्वासन दिया कि पार्थिव देह गांव नहीं ले जाएंगे, तब उन्हें इसे सौंप दिया गया था।’

चौक से घाट तक जमा हुए थे लोग

अंग्रेज सैनिक तत्काल अंतिम संस्कार के लिए दबाव बना रहे थे। वादा करने के बावजूद सेठ बनवारी लाल शव को चौक ले गए। अंतिम यात्रा के समय जुलूस की शक्ल में श्रद्धांजलि देने बड़ी संख्या में लोग वहां पहुंच गए। भीड़ ऐसी कि स्वजनों तक सूचना पहुंचाना भी मुश्किल था। तब सेठ बनवारी लाल ने ही खन्नौत घाट पर बाबूराम शर्मा का अंतिम संस्कार किया। उनकी शव यात्रा में कई लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में जुड़ने का निश्चय कर लिया था।

स्मृति में रखे गए स्कूलों के नाम

क्रांतिकारी बाबूराम शर्मा के गांव में रहने वाले भतीजे कमल कुमार बताते हैं कि आज भी बुजुर्ग उनके बारे में अक्सर चर्चा करते व जानकारी साझा करते हैं। कमल कुमार बताते हैं कि वर्ष 1997 में शासन से पता चला कि जेल में बाबूराम शर्मा के निधन का रिकार्ड तक नहीं है, जिस कारण उनका स्मारक नहीं बनाया गया, जबकि बिस्मिल, अशफाक व रोशन सिंह के क्रमश: गोरखपुर, फैजाबाद (अब अयोध्या) व प्रयागराज जेल में स्मारक हैं। हालांकि लोगों के दावे और सूचना विभाग की जानकारी के आधार पर प्रशासन की तरफ से उनके गांव के दो स्कूलों का नाम शहीद बाबूराम शर्मा के नाम पर रख दिया गया। इसके अतिरिक्त आजादी के 50 वर्ष पूरे होने पर उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग की ओर से जारी ‘स्वतंत्रता संग्राम के सैनिक’ पुस्तक में शाहजहांपुर के बलिदानियों में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, रोशन सिंह के साथ शहीद बाबूराम शर्मा का भी उल्लेख है।

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