किताबघर में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की 'गीतिका' और मयूरपंख में पढ़िए 'हिंदी का लाेकवृत्त' की पुस्तक समीक्षा

Dainik Jagran Book Review Column ‘गीतिका’ की भूमिका में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला स्वयं यह स्पष्ट करते हैं कि इन गीतों का प्रयोजन भारतीय संगीत उसमें निभाई जाने वाली रागदारी और तालों-मात्राओं से संदर्भित है जिसे उन्होंने सोद्देश्य लिखा है।

By Shaswat GuptaEdited By: Publish:Sun, 05 Dec 2021 07:30 AM (IST) Updated:Sun, 05 Dec 2021 07:30 AM (IST)
किताबघर में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की 'गीतिका' और मयूरपंख में पढ़िए 'हिंदी का लाेकवृत्त' की पुस्तक समीक्षा
गीतिका और हिंदी का लोकवृत्त पुस्तक का आवरण पृष्ठ।

[यतीन्द्र मिश्र]। हिंदी के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपने युगांतकारी लेखन से हिंदी जगत की पिछली एक शताब्दी को आलोकित कर रखा है। स्वाधीनता के हीरक जयंती वर्ष में हम जब भारतीय समाज पर प्रभाव डालने वाली प्रासंगिक कृतियों का मूल्यांकन कर रहे हैं, तो उसमें स्वत: ही निराला जी का रचनाकर्म शामिल हो जाता है। अपनी विस्तृत संवेदनात्मक चेतना के साथ वे एक ऐसे रचनाकार के रूप में भी हमारे सम्मुख हैं, जिनके व्यापक सरोकार वाले लेखन में भारतीयता की अनुगूंजें शामिल हैं। ऐसा कहा जाता है कि वे एक ओर अवधी में तुलसीदास और दूसरी ओर बांग्ला में रवींद्रनाथ टैगोर से टक्कर लेते नजर आते हैं। निराला जी के माधुर्य भरे, बेहद संवेदनशील और प्रसिद्ध गीतों के संकलन ‘गीतिका’ (पहली बार 1936 में प्रकाशित) का पुनर्पाठ करते हुए हम इस तर्क तक पहुंच सकते हैं कि उनकी भाषा, संवेदना और वैचारिकी का फैलाव उन्हें एक ऐसे प्रासंगिक और महान कवि के रूप में उपस्थित करता है, जिसका सम्यक मूल्यांकन किसी भी काल में पूरी तरह संभव नहीं जान पड़ता। ‘गीतिका’ में संकलित अधिकांश गीतों का विषय प्रेम, यौवन और सौंदर्य है, जिसकी अभिव्यक्ति के लिए कवि ने कहीं नारी और कहीं प्रकृति को संबोधित किया है। यह भी अपने आप में विशिष्ट है कि अक्सर उल्लास का चरम रचते हुए वे प्रकृति और स्त्री का भेद मिटा देते हैं। यह अलग बात है कि इस उल्लास में कुछ गीत यहां प्रार्थनापरक ढंग से भी संकलित किए गए हैं। उत्कृष्ट कविता का साक्ष्य रचती हुई ‘गीतिका’ दरअसर्ल हिंदी में कविता और संगीत का दुर्लभ सामंजस्य है।

‘गीतिका’ की भूमिका में निराला स्वयं यह स्पष्ट करते हैं कि इन गीतों का प्रयोजन भारतीय संगीत, उसमें निभाई जाने वाली रागदारी और तालों-मात्राओं से संदर्भित है, जिसे उन्होंने सोद्देश्य लिखा है। अपने गीतों की संगीत विषयक प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए वे बाकायदा कुछ गीतों के हवाले से पारंपरिक तालों- धमार, रूपक, झपताल, चौताल, तीन ताल, दादरा आदि की चर्चा करते हैं और इस बात की गंभीर व्याख्या करते हैं कि इन तालों की मात्राओं के विभाजन के अनुसार शब्द और ध्वनि को पकड़ते हुए उन्होंने गीतों का शिल्प गढ़ा है। यह पढ़ना चकित करता है कि उनका प्रसिद्ध गीत ‘सखि, वसंत आया/भरा हर्ष वन के मन/नवोत्कर्ष छाया’ दादरा ताल पर रचा गया है या कि ‘प्राण-धन को स्मरण करते/नयन झरते-नयन झरते’ धमार पर लिखा गया। इस लिहाज से ‘गीतिका’ संगीत-शास्त्र के आधार पर रची गई एक ऐसी सलोनी भावांजलि है, जिनमें भारतीय संगीत के व्याकरण में बंधी हुई कवि की स्वच्छंद भाषा, वैचारिकी के साथ कल-कल करती नदी सरीखी बहती है। इस किताब की समीक्षा करते हुए नंद दुलारे वाजपेयी ने गीतों की भाषा की जो अनूठी टीका की है, वह उस युग में कविता के नवोन्मेष और बदलते हुए परिदृश्य को समग्रता में समझने की एक कुंजी प्रदान करती है। वे लिखते हैं- ‘निराला जी में पूर्ण मानवोचित सहृदयता और तन्मयता के साथ उच्च कोटि का दार्शनिक अनुबंध है। अतएव उनके गीत भी मानव-जीवन के प्रवाह, निखरे हुए, फिर प्रकाश से चमकते हुए हैं।’ वाजपेयी जी जिस तरह निराला के कृतित्व की पड़ताल करते हैं, उस तरह उनके गीतों को देखने पर उनका आत्म-निवेदन, सौंदर्य-चित्रण, प्रकृति-वर्णन, प्रार्थनापरक स्वर तथा दार्शनिक व राष्ट्रीय गीतों की विविधता भारतीय समावेशी संस्कृति को अपने सबसे प्रखर स्वर में अभिव्यक्त करती है। ‘गीतिका’ का आरंभ ही उनकी कालजयी सरस्वती वंदना ‘वर दे, वीणावादिनी वर दे’ से होती है, जिसमें भारत में स्वतंत्रता का रस भरने का आह्वान हुआ है- ‘प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव/भारत में भर दे..’।

उनके ढेरों गीत ऐसे हैं, जिनकी व्याख्या करते हुए सहज ही संस्कृति के मौलिक व्याकरण को समझने में मदद मिलती है। यह निराला ही हैं, जो मनुष्य की अस्मिता और उसके संघर्ष को स्वर देने के साथ जीवन राग में भी तन्मय होने का भाव रचते हैं। इस संकलन के कई अमर गीत याद किए जाने चाहिए, जिनका स्थायी महत्व है- ‘कौन तुम शुभ्र-किरण-वसना’, ‘प्रिय यामिनी जागी’, ‘रूखी री यह डाल, वसन वासंती लेगी’, ‘आओ मधुर-सरण मानसी, मन’, ‘नयनों के डोरे लाल गुलाल भरे’, ‘तुम्हीं गाती हो अपना गान’ आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत गीत ‘भारति, जय, विजय करे’ निराला की कविता का कीर्ति-स्तंभ माना जाता है। इस कविता में प्राकृतिक संपदा से सुसज्जित भाव देखने वाला है, जिसके माध्यम से वे भारत का सांस्कृतिक अवगाहन करते हैं। निराला की काव्य-संपदा में उनकी शब्दावली का अपना महत्व रहा है, जिसने नई कविता का एक सर्वथा नया युग आरंभ किया, मगर जिसकी भाषा-भंगिमा संस्कृतनिष्ठ हिंदी से होकर आम बोल-चाल र्की ंहदुस्तानी जुबान तक आती है। ‘गीतिका’ इस अर्थ में एक विशेष अभिप्राय लिए हुए ऐसा गीत-संग्रह है, जिसमें निराला की तत्सर्म ंहदी का एक बहुत समृद्ध कोश रचा जाता हुआ हम देख सकते हैं। ‘गीतिका’ को नए संदर्भों में पढ़ना और भारतीयता को उसके सांगीतिक रूप में निहित गहन सांस्कृतिक अर्थों में देखना सुखद लगता है। एक ऐसा संग्रह, जो समय की सीमा से परे आज भी प्रासंगिक है।

गीतिका

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

काव्य-संग्रह

पहला संस्करण, 1936

पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2018

राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली

मूल्य: 195 रुपए

मयूरपंख - 

भाषा के सामाजिक

सांस्कृतिक हलचलों की यात्रा

हिंदी भाषा के बनने और उसके समग्र विकास की कहानी का राजनीतिक, सामाजिक संदर्भ चित्रित करते हुए एक विशद इतिहास का प्रामाणिक ब्यौरा है- हिंदी का लोकवृत्त: 1920-1940’। इसे हिंदी की विदेशी विद्वान फ्रांचेस्का आर्सीनी ने मूल अंग्रेजी भाषा में लिखा था, जिसका अनुवाद नीलाभ ने किया है। दो दशक की हिंदी की यात्रा में उसके सांस्कृतिक हलचलों का साक्ष्य जुटाते हुए आर्सीनी अमीर खुसरो के समय से चली आ रही हिंदी के बारे में लिखते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र तक आती हैं और उसके बाद नवजागरण काल की हिंदी का स्वरूप विश्लेषित करती हैं। यह वह दौर है, जब हिंदू, हिंदी और हिंदुस्तान’ की भावना से प्रेरित राष्ट्रवाद, उस युग में भाषा का एक नया व्याकरण रच रहा था।

यह ऐसा मौलिक शोध-प्रबंध है, जिससे गुजरकर आप एक भाषा के विकास को जीवंतता से जीवन-ग्रहण करते हुए देख सकते हैं। इस सामग्री का अपना सामाजिक, सांस्कृतिक महत्व है। भाषा और साहित्य के अध्येताओं के लिए जरूरी किताब, जो हिंदी का भूगोल बड़े परिप्रेक्ष्य में तथ्यवार खोलकर रखती है।

हिंदी का लोकवृत्त: 1920-1940

फ्रांचेस्का आर्सीनी

अनुवाद: नीलाभ

साहित्य/शिक्षा/भाषा-विज्ञान

पहला संस्करण, 2011

वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

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