स्वाधीनता के पूर्व अपने चरम पर थी भारतीय पत्रकारिता, जानिए कौन थे आजादी के दीपस्तंभ

Azadi Ka Amrit Mahotsav भारतीय पत्रकारिता की गौरवशाली संपादक परंपरा में तपस्वी-त्यागी- बलिदानी संपादकों व पत्र-पत्रिकाओं की सूची बहुत प्रशस्त है। देश का कोई भी ऐसा हिस्सा नहीं बचा था जहां से संपादक स्वतंत्रता आंदोलन में न कूद पड़े हों या पत्र-पत्रिकाएं न प्रकाशित हुई हों।

By Shaswat GuptaEdited By: Publish:Sat, 02 Oct 2021 04:43 PM (IST) Updated:Sat, 02 Oct 2021 04:43 PM (IST)
स्वाधीनता के पूर्व अपने चरम पर थी भारतीय पत्रकारिता, जानिए कौन थे आजादी के दीपस्तंभ
उदंड मार्तण्ड की खबर से संबंधित सांकेतिक फोटो।

वाराणसी, [आजादी के अमृत महोत्सव पर अपना तन-मन-धन समर्पित करने वाले सुधी संपादकों के योगदान को बताता राम मोहन पाठक का आलेख]। साख और सरोकार पत्रकारिता की मूलभूत पूंजी है। भारतीय पत्रकारिता का मिशनरी सरोकार भारत की स्वाधीनता रहा। पारंपरिक रूप से देवर्षि नारद भारतीय संचार परंपरा के आदिपुरुष के रूप में एक आदर्श उदाहरण हैं। अनेक पुस्तकों के लेखक तथा अपने समय की चर्चित पत्रिका 'मर्यादा' के संपादक मनीषी विद्वान पूर्व राज्यपाल डा. संपूर्णानंद जब लिखते हैं, 'पत्रकारों को चाहिए कि वे महर्षि नारद को अपना गुरु मानें। वे शौर्य, धैर्य और आत्मत्याग की खबरें दिगंत तक पहुंचाते रहे। सद्गुणों की कीर्ति फैलाने तथा विपत्ति और फूट के नाश का प्रचारक मानते हुए उन्होंने नारद को आदर्श पत्रकार एवं पत्रकारिता का विशिष्ट पुरुष माना। नारद सरोकारों को समर्पित संचारक थे। भारतीय संचार की इस सरोकार-केंद्रित परंपरा का उत्कर्ष भारतीय पत्रकारिता के लगभग 242 सालों के इतिहास में स्वाधीनता के पूर्व अपने चरम पर दिखाई देता है। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ के रूप में भारतीय पत्रकारिता का एक आदर्श स्वरूप यद्यपि इतिहास के पृष्ठों में समाहित है, परंतु यह स्वर्णिम इतिहास आज भी मीडियाकर्म का अप्रतिम आदर्श है।

दिखाई कलम की ताकत: पत्रकारिता तब 'मिशन' थी, यानी नि:स्वार्थ समर्पण का क्षेत्र था। अंग्रेज शासन के दो शताब्दी से चले आ रहे दमन-शोषण के विरुद्ध संघर्ष के लिए बलिदान को प्रस्तुत संपादकों-पत्रकारों ने स्वाधीनता के शस्त्रहीन संघर्ष में अपनी आहुति दी, खतरे झेले, जेल यातनाएं सहीं पर अपने मिशन- 'सत्व निज भारत गहै' से विचलित नहीं हुए। भाषा, क्षेत्र, जाति आदि के अंतर से अलग हटकर संपूर्ण भारत को एकजुट करने, अंग्रेजों के दमन, बर्बरता का मुकाबला करने के लिए पूरे देश को एक सूत्र में बांधा और फिरंगी शासन से मुक्ति के लिए संपूर्ण देश को प्रेरित-उद्वेलित किया। बिस्मिल इलाहाबादी ने समाचारपत्रों  की ताकत को बयां किया- 'जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो', अंग्रेजी विचारकों ने भी कहा- 'पेन इज माइटियर दैन स्वार्ड' यानी 'कलम तलवारों से भी कहीं अधिक ताकतवर है।' उस स्वाधीनता पूर्व काल में समाचार पत्र-पत्रिकाएं ही प्रभावी जनमाध्यम थीं। अन्य माध्यमों का कोई अस्तित्व न था।

अपनों ने ही दिया देश निकाला: 18वीं शताब्दी के अंत में भारत के पहले अंग्रेजी समाचार पत्र 'बेंगाल गजट-केलकाटा जेनरल एडवर्टाइजर (एडवॢटफायर)' के प्रकाशक-संपादक जेम्स आगस्टस हिक्की ने अंग्रेजों के दुराचार, भ्रष्टाचार और शोषण के खिलाफ अपने समाचारपत्र को मजबूत हथियार बनाया। ईस्ट इंडिया कंपनी के मुलाजिम होते हुए हिक्की ने सत्य का संधान करने वाली पत्रकारिता के जनक के रूप में संपादक की भूमिका का निर्वाह किया। बाद में उसे भारत देश से 'देश निकाला' की सजा उसके अपने साथी अंग्रेज शासकों ने ही दी।

जब्त होने लगी प्रतियां: एक ओर सुभाषचंद्र बोस ने नारा दिया - 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा', दूसरी ओर बंगाल के ही प्रमुख पत्र 'युगांतर' ने आजादी के इस आह्वïान में सुर मिलाया- 'युगांतर मूल्य: फिरंगीर कांचा माथा' यानी 'युगांतर का मूल्य फिरंगी अंग्रेज का सिर'। राजा राममोहन राय ने अपने पत्रों- 'बंगदूत', 'संवाद कौमुदी' और 'मिरातुल अखबार'- 1821 का उद्देश्य 'अंग्रेज शासकों से सुरक्षा' रखा। अंग्रेजों का दमन चक्र भी राजा राममोहन राय को हिला न सका पर उनके दो पत्र अल्पजीवी रहे और अंग्रेजों के दमन-शोषण के कारण बंद हो गए। प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 के दौरान दादाभाई नौरोजी ने 'रास्ति गुफ्तार' का प्रकाशन कर राष्ट्रचेतना का प्रसार किया। इसी साल अजीमुल्ला खां के हिंदी-उर्दू द्विभाषी पत्र 'पयामे आजादी' ने स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन कर स्वाधीनता सेनानियों में धूम मचा दी। अखबार जब्त कर इसकी प्रति पाए जाने पर अंग्रेजों ने राष्ट्रद्रोह की सजा का कानून बना दिया। इसी साल तीन पत्रों 'दूरबीन', 'सुल्तान उल अखबार' और 'समाचार सुधा वर्षण' के संपादकों पर मुकदमा चलाकर उन्हेंं जेल भेज दिया गया।

चहुंओर उठी चिंगारी: देश का कोई भी ऐसा हिस्सा नहीं बचा था, जहां से स्वाधीनता आंदोलन के समर्थन में संपादक स्वतंत्रता आंदोलन में न कूद पड़े हों या पत्र-पत्रिकाएं न प्रकाशित हुई हों। उस समय के सभी बड़े राजनीतिज्ञ-राजनेता पत्रों के प्रकाशक-संपादक या लेखक के रूप में अवश्य ही जुड़े रहे। महात्मा गांधी ने अपने पत्रों - 'यंग इंडिया', 'हरिजन', 'इंडियन ओपीनियन' और कुछ दिनों तक संपादक रहे - 'मुंबई समाचार' के माध्यम से स्वतंत्रता की अलख जगाई। लाला हरदयाल के पत्र 'गदर', बाल गंगाधर तिलक के पत्रों- 'केसरी' और 'मराठा' के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला को ज्वलंत रखा गया। अमेरिका में लाला हरदयाल की गिरफ्तारी के बाद 'गदर' पत्र का संपादन-प्रकाशन करने वाले पंडित रामचंद्र की अमेरिका के जेल में ही हत्या कर दी गई। 'वंदे मातरम' के अरविंद घोष को जेल की सजा झेलनी पड़ी। भारत के भाषायी पत्रों के दमन के लिए पर्याप्त कानून न होने की वजह से अंग्रेज सरकार के मुलाजिम लार्ड लिटन ने चर्चित वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट लागू कर दिया, जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भारत के करोड़ों लोगों की आजादी की मंशा और संकल्प को मुखरित करने के लिए कई संपादकों ने अपनी जान और अपने पत्रों की बाजी लगा दी।

दमनकारी नीतियों के खिलाफ विरोध: भारतीय पत्रकारिता की गौरवशाली संपादक परंपरा में तपस्वी-त्यागी- बलिदानी संपादकों की सूची बहुत प्रशस्त या लंबी है। महात्मा गांधी के संपादन- पत्रकारिता क्षेत्र में आने से पहले बाल गंगाधर तिलक को उनके पत्रों- 'केसरी' और 'मराठा' के बागी तेवर और क्रांतिकारियों के प्रबल समर्थन के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में उन्होंने अपने बयान में कहा- 'अंग्रेज शासन का तो एक दिन अंत होना ही है। दक्षिण में क्रांति की अलख जगाने के लिए 'द हिंदू' पत्र का जी. सुब्रह्मण्य ने प्रकाशन प्रारंभ किया। तमिल भाषा में 'स्वदेश मित्रन' के माध्यम से उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन को आगे बढ़ाने, समाज सुधार और स्वदेशी भावना के प्रोत्साहन के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया और 1908 में राष्ट्रद्रोह के आरोप में उन्हेंं जेल की सजा काटनी पड़ी। इसी परंपरा में मात्र 32 रुपए की लागत से शिशिर कुमार और उनके भाई मोतीलाल ने 'अमृत बाजार पत्रिका' का प्रकाशन किया। पत्र संपादकों ने खुलकर अंग्रेज शासन का विरोध किया। तिलक की गिरफ्तारी और कश्मीर विभाजन के मुद्दे पर अंग्रेज शासन की नीतियों के विरोध में विद्रोह और अंग्रेज विरोधी जनांदोलन की पत्र ने वकालत की। 'पत्रिका के लेखों और समाचारों के कारण सुभाषचंद्र बोस और अनेक राष्ट्रवादी छात्रों को अंग्रेजों द्वारा संचालित प्रेसिडेंसी कालेज से निकाल दिया गया। तत्कालीन शासक वायसराय लार्ड कर्जन से अनेक विवादों के कारण इन्हेंं कठोर यातनाएं भुगतनी पड़ीं। इसी प्रकार 'स्वदेशाभिमानी' (मलयालम) के संपादक के. रामकृष्णन पिल्लई को तिरुनेलवेली में नजरबंद करते हुए उनके समाचारपत्र को जब्त कर लिया गया।

कई बार हुई जेल यात्राएं: महामना मदन मोहन मालवीय स्वतंत्रता पूर्व की पत्रकारिता के पितामह के रूप में समादृत हैं। पंडित मोतीलाल नेहरू के साथ उन्होंने 'द लीडर' पत्र प्रारंभ किया। अंग्रेजों के दमन का शिकार समाचार पत्र 'हिंदुस्तान टाइम्स' जब बंदी के कगार पर पहुंच गया तो उन्होंने 1924 में इसे बचाने के लिए पचास हजार रुपए की धनराशि की व्यवस्था की। कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह के पत्र 'हिंदोस्थान' के संपादक के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक योगदान किया और अंग्रेजों की दमनकारी, शोषण की नीतियो के विरुद्ध स्वयं द्वारा संपादित पत्रों को सशक्त हथियार बनाया। वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट के विरुद्ध 'द लीडर'' का प्रकाशन कर उन्होंने भारतीय पत्रकारिता में एक नई प्राणशक्ति का संचार किया। मालवीय जी को अपने स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय सहयोग और लेखन-संपादन के लिए कई बार जेल की सजा भुगतनी पड़ी। महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, सिस्टर निवेदिता, प्रेमचंद, सी.एफ. एंड्रूज, लाला लाजपत राय, रामानंद चटर्जी जैसे संपादकों की यशस्वी परंपरा को हिंदी पत्रकारों-संपादकों ने अपने त्याग-बलिदान से समृद्ध किया। स्वातंत्र्य चेतना के विकास और प्रसार में हिंदी संपादकों ने अपनी लेखिनी के साथ-साथ स्वातंत्र्य समर में सशरीर सहभाग करते हुए कठोर यातनाएं झेलीं। मिशनरी पत्रकारिता के दीपस्तंभ (लाइट हाउस) इन संपादकों के ऐतिहासिक अवदान तथा समर्पण ने स्वतंत्रता के यज्ञ में अपने पत्र की और अपनी आहुति देकर स्वाधीनता आंदोलन को समर्थ और सफल बनाया।

बंद कर दी गई सरकारी मदद: भारतेंदु ने अंग्रेज शासन के विरुद्ध अपनी पत्रिकाओं- 'कवि वचन सुधा' और 'हरिश्चंद्र मैगजीन' के माध्यम से 'सत्व निज भारत गहै' का आह्वान किया और इसे आजादी के संघर्ष का नारा बना दिया। 'कवि वचन सुधा' को सरकार की नीतियों के निरंतर विरोध के कारण सरकारी मदद बंद कर दी गई। इसके विरोध में भारतेंदु जी ने मानद मजिस्ट्रेट के पद से त्यागपत्र दे दिया। बालकृष्ण भट्ट एवं प्रताप नारायण मिश्र के पत्र 'ब्राह्मण' को 1910 में बंद करना पड़ा। अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने अपने पत्र 'स्वतंत्र' को स्वतंत्रता आंदोलन का हथियार बनाया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 'सैनिक' पत्र के माध्यम से कृष्णदत्त पालीवाल ने आजादी की अलख जगाई।

मानदेय में दो रोटी और जेल: स्वाधीनता संग्राम में भारतीय पत्रकारिता का मूल स्वर त्याग, बलिदान और 'मिशन' के प्रति समर्पण का स्वर था। संपादकों को वेतन न के बराबर था। संपादक की नियुक्ति के लिए एक विज्ञापन  - आवश्यकता है- साप्ताहिक पत्र के लिए संपादक की। योग्यता- देशाभिमान और जेल जाने के लिए सन्नद्ध। वेतन - दो रोटी-पानी और पत्र के लिए कोई भी अन्य आवश्यक कार्य-मानदेय अपेक्षित नहीं होगा। हिंदी के प्रथम पत्र -'उदंत मार्तंड' के 1826 में प्रकाशन के बाद हिंदी पत्रकारिता का ऐतिहासिक विकास हुआ। प्रताडऩा, संघर्ष, अभाव तत्कालीन पत्रकारिता की थाती थे। धारदार संपादकीय, दमन-शोषण के विरुद्ध आह्वान करने वाले संपादकों का जुनून अंग्रेजों पर भारी पड़ा। गांधी के 'असहयोग', 'भारत छोड़ो' तथा 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' को हिन्दी संपादकों ने धार दी। 1920 में प्रकाशित 'आज' तथा बाद में 'संसार के संपादक' बाबूराव विष्णु पराड़कर तथा पंडित कमलापति त्रिपाठी को अनेक जेल यातनाएं झेलनी पड़ीं। 'आज प्रेस पर चार बार तालाबंदी की गई पर राष्ट्रसेवी संपादक अपने संकल्प से डिगे नहीं। पराड़कर जी को चार बार जेल की सजा भुगतनी पड़ी। कमलापति पांच बार जेल गए पर अपने राष्ट्र-संकल्प से विचलित नहीं हुए।

हिला दीं अंग्रेजों की चूलें: वर्ष 1920-40 तक का समय हिंदी संपादकों और पत्रकारिता के संघर्ष का यातनाकाल था। जब समाचार पत्रों पर अंग्रेज शासन ने तालाबंदी का दौर शुरू किया, तब अनेक गुप्त पत्रों का प्रकाशन हुआ। इनमें 'रणभेरी पत्र ने अंग्रेज प्रशासन की चूलें हिला दीं। पराड़कर जी द्वारा हस्तलिखित इस पत्र के गुप्त प्रसार ने फिरंगियों के होश उड़ा दिए। पराड़कर जी केवल लेखक-पत्रकार या संपादक ही नहीं थे। वे सक्रिय स्वातंत्र्य सेनानी थे। एक जेब में या टिफिन में'रणभेरी की प्रतियां  रखकर और दूसरी जेब में पिस्तौल रखकर अपने गुप्त पत्र का प्रसार करने वाले पराड़कर जी का स्वाधीनता संग्राम में योगदान अविस्मरणीय है। पराड़कर जी की प्रेरणा से बंबई (अब मुंबई) तथा अन्य स्थानों से 'रणडंका, 'फितूर, 'रिवोल्यूशन, 'रिवोल्ट, 'गदर, 'बगावत जैसे पत्रों के प्रकाशन का अटूट सिलसिला पूरे देश में चल पड़ा और इन प्रकाशनों की काफी मांग रहती थी। काशी के रईस इन प्रकाशनों की पूरी मदद भी करते थे। इसके प्रमाण अभिलेखागारों में संरक्षित सरकारी दस्तावेजों मे उपलब्ध हैं। 'सेनापति, 'स्वतंत्र, 'आज, 'प्रताप, 'अर्जुन, 'कर्मवीर, 'जागरण आदि पत्रों के संपादकों के योगदान और अंग्रेज शासन के विरुद्ध उनके बलिदान की गाथा बहुत लंबी है। आज जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, तब इस आजादी के लिए अपना तन-मन-धन सब कुछ समर्पित करने वाले सुधी संपादकों के प्रति नमन करते हुए भारतीय संपादक-पत्रकार परंपरा के प्रति गर्व से हमारा सिर ऊंचा होना स्वाभाविक है।

[लेखक वरिष्ठ पत्रकार, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई एवं नेहरू ग्राम भारती मानित विश्वविद्यालय, प्रयागराज के पूर्व कुलपति हैं।]

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