स्वतंत्रता आंदोलन की वह गुमनाम नायिका जिसने तिरंगे के खातिर प्राणों की दी आहुति
Azadi Ka Amrit Mahotsav पर आज हम याद कर रहे हैं असम की स्वतंत्रता सेनानी कनकलता बरुआ उर्फ वीरबाला को। इस वीरांगना ने मात्र 17 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहुति देकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उद्घोष और भारतीय अस्मिता के प्रतीक तिरंगे को झुकने नहीं दिया...
कानपुर, [विवेक मिश्र]। Azadi Ka Amrit Mahotsav भारतीय स्वतंत्रता संग्राम रूपी यज्ञ में अनेक वीरांगनाओं ने अपनी आहुति दी। लाखों स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अंग्रेजों के शोषण व कुत्सित नीतियों से भारतीय जनता को मुक्त कराने के लिए कठिनतम परिस्थितियों में भी अंतिम सांस तक लड़ते रहे, किंतु भारतीय इतिहास का यह दुर्भाग्य रहा कि हम केवल कुछ ही वीर-वीरांगनाओं की शौर्य गाथाओं को व्यापक रूप से जनमानस में प्रचारित-प्रसारित कर पाए, न जाने कितने वीर-वीरांगनाओं की शौर्य गाथाएं आज भी इतिहास के गर्भ में दफन हैं। अमृत महोत्सव के मौके पर आवश्यकता है आजादी की उन गुमनाम नायिकाओं को स्मरण करने की ताकि हम समझ सकें कि आजादी का वास्तविक अर्थ क्या है और किन दुर्गम परिस्थितियों में पूर्वजों ने इसे हासिल किया है।
आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर आज हम याद कर रहे हैैं उस वीरांगना को जिसने मात्र 17 साल की उम्र में ही अपने प्राणों की आहुति देकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उद्घोष और भारतीय अस्मिता के प्रतीक तिरंगे को झुकने नहीं दिया और आने वाली पीढिय़ों के सम्मुख उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि बलिदान की कोई उम्र नहीं होती और राष्ट्रहित से बड़ा कोई हित नहीं होता। आज इतिहास जिन्हेंं वीरबाला के नाम से जानता है।
कौन हैं वीरबाला: 22 दिसंबर 1924 को असम के बारंगबाड़ी गांव में कृष्ण कांत बरुआ व कर्णेश्वरी देवी के घर एक कन्या का जन्म हुआ, नाम रखा गया कनकलता। मात्र पांच वर्ष की अवस्था में उनकी मां का देहांत हो गया। कुछ ही समय पश्चात उनके पिता एवं उनकी सौतेली मां भी इस दुनिया में नहीं रहे। अत्यंत कठिन परिस्थितियों में कनकलता का पालन-पोषण उनकी नानी के द्वारा किया गया। मात्र सात वर्ष की आयु से ही असम के प्रसिद्ध कवि और नवजागरण के अग्रदूत ज्योति प्रसाद अग्रवाल के असमिया गीतों को सुन-सुनकर उनके मन में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित होने की ज्वाला प्रज्वलित हुई। जब महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया तो मानो जैसे उनके अंदर एक नई चेतना का उद्गार होने लगा। केवल 17 साल की उम्र में वह युवा स्वयंसेवकों से मिलकर मृत्यु वाहिनी नामक एक आत्मघाती दस्ते में शामिल हो गईं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आजाद हिंद फौज में शामिल होने की उनकी याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि वह अभी नाबालिग हैं। भारत छोड़ो आंदोलन के 43वें दिन यानी 20 सितंबर 1942 को एक गुप्त सभा में तेजपुर के गोहपुर थाने पर तिरंगा फहराने की योजना बनाई गई। कनकलता ने अपने दादा से वादा किया कि वह गोहपुर पुलिस स्टेशन के ब्रिटिश पुलिस प्रभारी से भिडऩे के दौरान अपने अहोम वंश की गौरवशाली प्रतिष्ठा पर उतरेंगी, जहां राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाना था। तय योजना के अनुसार करो या मरो, वंदे मातरम, भारत माता की जय, इंकलाब जिंदाबाद के नारों का उद्घोष करते स्वतंत्रता सेनानियों का नेतृत्व करते हुए कनकलता अपने दोनों हाथों में तिरंगा थामे आगे बढ़ती जा रही थीं। थाने के पास पहुंचते ही थाने के अधिकारी उनका रास्ता रोकने लगे। उन्होंने अधिकारियों को समझाते हुए कहा- हम आपसे कोई हिंसक संघर्ष नहीं चाहते। हमारा उद्देश्य केवल शांतिपूर्वक तिरंगा ध्वज फहराकर स्वतंत्रता की अलख जगाना है। वहां का थानेदार पी. एम. सोम बहुत सख्त था, वह कनकलता के लाख समझाने पर भी नहीं माना और आगे बढऩे पर गोली मारने की चेतावनी दे डाली, किंतु गोली लगने का भय भी कनकलता को अपने पथ से विमुख नहीं कर सका। वह निडर होकर आगे बढऩे लगीं। उन्होंने कहा- स्वतंत्रता हमारा अधिकार है, तुम्हारी ये गोलियां हमारे संकल्प को डिगा नहीं सकतीं। स्वतंत्रता के वृक्ष को पुष्पित और पल्लवित करने के लिए मैं अपना बलिदान देने से भी पीछे नहीं हटूंगी। चारों तरफ अफरा-तफरी मच गई। तभी अचानक बोगी कछारी नामक एक सिपाही के हाथों चली गोली कनकलता के सीने को भेद गई। तब भी उस वीरांगना ने तिरंगे को नीचे गिरने नहीं दिया। न जाने कितने लोग इस घटना में वीरगति को प्राप्त हुए। कनकलता के शव को अपने कंधों पर उठाकर स्वतंत्रता सेनानी गांव ले गए और वही उस वीरांगना को अंतिम श्रद्धांजलि समॢपत करते हुए, उनकी अंत्येष्टि की गई। कुछ ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार वीरबाला पर गोली चलाने वाले सिपाही ने भी बाद पछतावे के कारण कुएं में कूदकर अपनी जान दे दी थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उनके नाम पर उनके गांव में कनकलता माडर्न गर्ल हाईस्कूल की स्थापना की गई। पिछले साल भारतीय तटरक्षक बल ने गस्त करने वाले एक पोत का नाम भी कनकलता के नाम पर रखा। कनकलता को असम की सबसे कम उम्र की महिला स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद किया जाता है। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब असम के सारे बड़े नेता धीरे-धीरे क्रूर अंग्रेजी प्रशासन द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए, तब असम में क्रांति का नेतृत्व महज 17 साल की कनकलता द्वारा किया गया। यह बात हमारे उस गौरवशाली इतिहास को दर्शाती है जिसमें छोटी उम्र में ही महिलाओं ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में न केवल भागीदारी की, बल्कि अपना सर्वस्व समॢपत कर दिया। कनकलता का बलिदान तत्कालीन समय में भी महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के लिए प्रेरित करता रहा और वर्तमान में भी हम उनसे राजनीतिक एवं प्रशासनिक स्तर पर महिलाओं के व्यापक भागीदारी, महिला समानता एवं नारी सशक्तिकरण जैसे मुद्दों पर सीख ले सकते हैं।