आजादी का अमृत महोत्सव : महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ नारी उत्थान की मशाल बनीं थीं 'उमाबाई'

Azadi Ka Amrit Mahotsav कर्नाटक के मंगलौर में पैदा हुईं उमाबाई कुंदापुर ने न केवल महिलाओं को शिक्षित करने का काम किया बल्कि उन्हें स्वाधीनता आंदोलन के लिए भी प्रेरित किया। वह निराश्रित सेनानियों की भी मदद करती थीं जिससे आजादी के संघर्ष को गति मिलती रहे।

By Shaswat GuptaEdited By: Publish:Wed, 27 Oct 2021 07:44 PM (IST) Updated:Wed, 27 Oct 2021 07:44 PM (IST)
आजादी का अमृत महोत्सव : महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ नारी उत्थान की मशाल बनीं थीं 'उमाबाई'
आजादी के आंदाेलन में अग्रणी भूमिका अदा करने वालीं उमाबाई।

[डा. प्रभात ओझा]। Azadi Ka Amrit Mahotsav उमाबाई कुंदापुर का नाम भले कर्नाटक में ही ज्यादा लिया जाता हो, पर इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि आजादी की लड़ाई, खासकर महिला उत्थान के क्षेत्र में पूरे देश ने  उनसे प्रेरणा ग्रहण की। कर्नाटक ही नहीं, पूरे देश में उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध के संक्रमण काल में महिलाओं का समाज में खुलकर सामने आना आसान न था। इसके बावजूद कुछ नायिकाओं ने ऐसा किया और इन्हीं में से एक भवानी का जन्म वर्ष 1892 में कर्नाटक के मंगलौर में गोलिकेरी कृष्ण राव और जुंगबाई की संतान के रूप में हुआ।

बाद में बंबई (अब मुंबई) आए इस परिवार की कन्या का विवाह लगभग नौ साल की उम्र में ही प्रगतिशील विचारों वाले आनंदराव कुंदापुर के पुत्र संजीवराव कुंदापुर से हुआ। इसके बाद भवानी गोलिकेरी उमाबाई कुंदापुर कहलाने लगीं। ससुर आनंदराव महिला शिक्षा आंदोलन से प्रभावित थे। इसलिए बहू उमाबाई की भी शिक्षा जारी रही। उमाबाई बाद में अपने ससुरजी के साथ बंबई में गोंडवी महिला समाज के जरिए महिलाओं को शिक्षित करने में लग गईं।

लोकमान्य तिलक की शवयात्रा में वह पति के साथ शामिल हुईं और तभी से सीधे आजादी की लड़ाई में भी शरीक होने लगीं। तिलक का निधन वर्ष 1920 में हुआ था। पति-पत्नी सार्वजनिक जीवन में साथ चलते कि इसी बीच वर्ष 1923 में उमाबाई के पति भी चल बसे। ऐसे में ससुर ने उन्हें पिता की तरह संभाला और बहू को सक्रिय रखने के लिए हुबली आ गए।

हुबली में कुंदापुर परिवार ने कर्नाटक प्रेस और तिलक कन्याशाला की स्थापना की। कन्याशाला के जरिए उमाबाई फिर से महिला शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय हुईं। इस काम को भगिनी मंडल ने और आगे बढ़ाया। भगिनी मंडल की स्थापना में भी उमाबाई ने स्वतंत्रता सेनानी कृष्णाबाई पंजीकर के साथ सहयोग किया था।

उमाबाई के इस तरह के प्रेरक कार्यों से महिलाएं धीरे-धीरे सचेत होने लगीं। उमाबाई ने उन्हें प्रेरित करने के लिए नुक्कड़ नाटकों का भी सहारा लिया। वह अलग-अलग स्थानों पर अपनी टीम के साथ नाटकों का प्रदर्शन करतीं। इससे महिलाएं सहज ही उनकी बातों की ओर आकर्षित होतीं। उमाबाई ने लड़कियों को सिर्फ पढऩे के लिए ही नहीं, बल्कि स्वदेशी आंदोलन की ओर भी प्रवृत्त किया। खादी पहनने के साथ चरखा चलाने के कारण महिलाओं को कुछ आय भी होने लगी। इसी बीच उमाबाई हिंदुस्तानी सेवा दल के संस्थापक डा. एन. एस. हार्डीकर के संपर्क में आईं। दरअसल सेवादल की प्रेरणा से ही उमाबाई ने महिलाओं को स्वयंसेवक के तौर पर तैयार करना शुरू किया था। उमाबाई हिंदुस्तानी सेवा दल की महिला शाखा की प्रमुख बनाई गईं।

उमाबाई के इन प्रयासों को वर्ष 1924 में कांग्रेस के बेलगाम अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भी महसूस किया।  अधिवेशन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ही कर रहे थे। उन्होंने अधिवेशन में पहली बार बड़ी संख्या में आईं महिला प्रतिनिधि और स्वयंसेवकों का जिक्र करते हुए उमाबाई की प्रशंसा की। तब वहां करीब 150 महिला स्वयंसेवक और बड़ी संख्या में महिला प्रतिनिधि शामिल हुईं। उनके इस तरह के कार्यों के चलते ही गांधी जी ने उमाबाई को कस्तूरबा ट्रस्ट की कर्नाटक शाखा का प्रमुख बनाया। कस्तूरबा ट्रस्ट ने विपरीत परिस्थितियों में भी महिलाओं के बीच बहुत काम किया था। हुबली और धारवाड़ क्षेत्र के गांवों में महिला मंडलों का गठनकर स्त्रियों की साक्षरता और कुटीर उद्योग के लिए बहुत काम हुए।

उमाबाई की खासियत थी कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वह समाज सेवा, विशेषतया महिला उत्थान के कार्यों में डटी रहीं। वह वर्ष 1932 में गिरफ्तार हुईं तो उन्हें यरवदा जेल में रखा गया। जेल में रहने के दौरान ही उनके सास-ससुर का निधन हो गया। बाहर निकलीं तो पता चला कि अंग्रेजी सरकार ने उनके ससुर द्वारा स्थापित कर्नाटक प्रेस को जब्त कर लिया है और तिलक कन्याशाला पर ताला लगा दिया है साथ ही स्वयंसेवी संस्था भगिनी मंडल को गैरकानूनी घोषित कर दिया है। इस पर भी उमाबाई के प्रेरक काम नहीं रुके। वह निराश्रित सेनानियों को अपने घर में जगह देने लगीं साथ ही ऐसे लोगों की हर तरह से मदद करतीं, जिससे समाजसेवा और आजादी के संघर्ष को गति मिलती रही।

वह वर्ष 1934 में भूकंप प्रभावित बिहार भी पहुंचीं, जहां उनकी प्रेरणा से महिलाओं समेत अन्य स्वयंसेवक भी पीडि़तों के लिए आगे आए। इसी दौरान उनकी डा. राजेंद्र प्रसाद और आचार्य जे. बी. कृपलानी से भेंट हुई। प्रसिद्ध समाजसेवी और स्वाधीनता आंदोलन के दौरान नमक सत्याग्रह में पुरुषों के बराबर महिलाओं की भागीदारी के लिए गांधीजी को राजी कर लेने वाली कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने भी उनसे प्रेरणा ग्रहण की। इसका जिक्र कमलादेवी ने अपनी आत्मकथा 'इनर रिसेस, आउटर स्पेसेसÓ में किया है। कमलादेवी ने माना है कि उमाबाई के विनम्र स्वभाव और इस्पाती दृढ़ संकल्प से प्रभावित होकर ही वह स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुईं। उमाबाई बहुत कम उम्र में विधवा हो गई थीं, पर उन्होंने अपने जीवन में कभी हार नहीं मानी। इस साहसी महिला ने अपने जीवन का लक्ष्य बहुत बड़ा बना लिया था। उन्होंने न सिर्फ आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया, बल्कि उन महिलाओं को भी घर की चहारदीवारी से बाहर निकाला जो आंगन में भी घूंघट में रहती थीं। ऐसी महिलाओं को आजादी की लड़ाई से जोडऩा तो बड़ा काम था ही, उमाबाई ने उन्हें स्वयं सुरक्षा, बुनाई और श्रमदान आदि में लगाना और शिविरों में रहने के लिए भी अभ्यस्त बनाया।

महिलाओं के लिए प्रेरक व्यक्तित्व की धनी उमादेवी वर्ष 1942 में अस्वस्थता के कारण आंदोलन में शरीक नहीं हो सकीं। इसके बावजूद उनकी पारिवारिक संपत्ति सेनानियों के लिए समर्पित रही। आजादी के बाद उन्हें कई तरह के पद देने की पेशकश हुई, पर कुर्सी की कौन कहे, स्वाधीनता सेनानियों को मिलने वाली पेंशन लेने से भी उन्होंने विनयपूर्वक मना कर दिया। वर्ष 1992 में 100 साल की उम्र में हुबली (कर्नाटक) के अपने घर 'आनंद स्मृतिÓ में उन्होंने अंतिम सांस ली।

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