मैं दावे के साथ कहता हूं कि यह नग्न सत्य है..., सुखदेव के पत्र पर महात्मा गांधी का जवाब
क्रांतिकारी सुखदेव ने गांधी जी को इरविन समझौते के बाद पत्र लिखा था जिसके जवाब में गांधी जी ने भी पत्र लिखा था। ये पत्र हिंदी नवजीवन में प्रकाशित हुआ था। इतिहास के पन्नों में पत्र के अंश आज अमर हो चुके हैं।
5 मार्च, 1931 को हुए गांधी-इरविन समझौते के बाद सुखदेव ने गांधी जी के नाम ‘एक खुली चिट्ठी’ लिखी थी, जो आपने पिछले अंक में पढ़ी। उस पत्र के जवाब में गांधी जी ने यह खत लिखा था, जो हिंदी नवजीवन’ में प्रकाशित हुआ...
‘अनेकों में से एक’ का लिखा हुआ पत्र स्वर्गीय सुखदेव का है। श्री सुखदेव भगत सिंह के साथी थे। यह पत्र उनकी मृत्यु के बाद मुझे दिया गया था। समयाभाव के कारण मैं इसे जल्द ही प्रकाशित न कर सका। बिना किसी परिवर्तन के ही वह अन्यत्र दिया गया है।
लेखक ‘अनेकों में से एक’ नहीं है। राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए फांसी को गले लगाने वाले अनेक नहीं होते। राजनैतिक खून चाहे जितने निंद्य हों, तो भी जिस देशप्रेम और साहस के कारण ऐसे भयानक काम किए जाते हैं, उनकी कद्र किए बिना नहीं रहा जा सकता। और हम आशा रखें कि राजनैतिक खूनियों का संप्रदाय बढ़ नहीं रहा है। यदि भारतवर्ष का प्रयोग सफल हुआ, और होना ही चाहिए, तो राजनैतिक खूनियों का पेशा सदा के लिए बंद हो जाएगा। मैं स्वयं तो इसी श्रद्धा से काम कर रहा हूं।
लेखक यह कहकर मेरे साथ अन्याय करते हैं कि क्रांतिकारियों से उनका आंदोलन बंद कर देने की भावनापूर्ण प्रार्थनाएं करने के सिवा मैंने और कुछ नहीं किया है। उलटे, मेरा दावा तो यह है कि मैंने उनके सामने नग्न सत्य रखा है, जिसका इन स्तंभों में भी कई बार जिक्र हो चुका है, और तो भी फिर उसे दोहराया जा सकता है...:
1. क्रांतिवादी आंदोलन ने हमें हमारे ध्येय के समीप नहीं पहुंचाया।
2. उसने देश के फौजी खर्च में वृद्धि करवाई।
3. उसने बिना किसी भी प्रकार का लाभ पहुंचाए सरकार के प्रति हिंसा के कारण पैदा किए हैं।
4. जब-जब क्रांतिवादी खून हुए हैं तब-तब कुछ समय के लिए उन-उन स्थानों के लोग नैतिक बल खो बैठे हैं।
5. उसने जनसमूह की जागृति में कुछ भी हाथ नहीं बंटाया।
6. लोगों पर उसका जो दोहरा बुरा असर पड़ा है, वह यह है कि आखिरकार उन्हें अधिक खर्च का भार और सरकारी क्रोध के अप्रत्यक्ष फल भोगने पड़े हैं।
7. क्रांतिवादी खून भारतभूमि में फल-फूल नहीं सकते, क्योंकि इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारतीय परंपरा राजनैतिक हिंसा के विकास के लिए प्रतिकूल है।
8. अगर क्रांतिवादी लोकसमूह को अपनी पद्धति की ओर आकर्षित करना चाहते हों, तो उनके लोगों में फैलने और स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अनिश्चितकाल तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
9. अगर हिंसावाद कभी लोकप्रिय हुआ भी, तो जैसा दूसरे देशों में हुआ है, वह उलटकर हमारा ही संहार किए बिना न रहेगा।
10. इसके विपरीत दूसरी पद्धति अर्थात अहिंसा की शक्ति का स्पष्ट प्रदर्शन क्रांतिवादी देख चुके हैं। उनकी छिटपुट हिंसा के और अहिंसा के उपासक कहलाने वालों की समय-असमय की हिंसा के रहते हुए भी अहिंसा टिकी रही है।
11. जब मैं क्रांतिवादियों से कहता हूं कि उनके आंदोलन से अहिंसा के आंदोलन को कुछ भी लाभ नहीं पहुंचा है, यही नहीं, उलटे उसने इस आंदोलन को नुकसान पहुंचाया है तो उन्हें मेरी बात को मंजूर करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, मैं यूं कहूंगा कि अगर मुझे पूरा-पूरा शांत वातावरण मिला होता, तो हम अब तक अपने ध्येय को पहुंच चुके होते।
मैं दावे के साथ कहता हूं कि यह नग्न सत्य है, भावप्रधान विनती नहीं। पर प्रस्तुत लेखक तो क्रांतिकारियों से मेरी प्रकट प्रार्थनाओं पर एतराज करते हैं और कहते हैं कि इस तरह मैं उनके आंदोलन को कुचल डालने में नौकरशाही की मदद करता हूं। पर नौकरशाही को उस आंदोलन का मुकाबला करने के लिए मेरी मदद की जरा भी जरूरत नहीं है। वह तो क्रांतिवादियों की तरह ही मेरे विरुद्ध भी अपनी हस्ती के लिए लड़ रही है। वह हिंसक आंदोलन की अपेक्षा अहिंसक आंदोलन में अधिक खतरा देखती है। हिंसक आंदोलन का मुकाबला करना वह जानती है। अहिंसा के सामने उसकी हिम्मत पस्त हो जाती है। यह अहिंसा तो पहले ही उसकी नींव को झकझोर चुकी है।
दूसरे, राजनैतिक खून करने वाले अपनी भयानक प्रवृत्ति का आरंभ करने से पहले ही उसकी कीमत कूत लेते हैं। यह संभव ही नहीं कि मेरे किसी भी काम से उनका भविष्य अधिक खराब हो सकता है।
और, क्रांतिकारी दल को गुप्त रीति से काम करना पड़ता है, ऐसी दशा में उसके गुप्तवास करने वाले सदस्यों को प्रकट रूप से प्रार्थना करने के सिवा मेरे सामने मार्ग ही खुला नहीं है। साथ ही इतना कह देता हूं कि मेरी प्रकट प्रार्थनाएं एकदम व्यर्थ नहीं हुई हैं। भूतकाल के बहुतेरे क्रांतिकारी आज मेरे साथी बने हैं।
इस खुली चिट्ठी में यह शिकायत है कि सत्याग्रही कैदियों के सिवा दूसरे कैदी नहीं छोड़े गए। इन दूसरे कैदियों के छुटकारे का आग्रह करना क्यों अशक्य था, इसके कारणों को मैं इन पृष्ठों में समझा चुका हूं। मैं स्वयं तो उनमें से हर एक का छुटकारा चाहता हूं। उन्हें छुड़ाने की मैं भरसक कोशिश करने वाला हूं। मैं जानता हूं कि उनमें से कई तो बहुत पहले ही छूट जाने चाहिए थे। महासभा ने इस संबंध में ठहराव किया है। कार्य समिति ने श्री नरीमान को ऐसे सब कैदियों की नामावली तैयार करने का काम सौंपा है। उन्हें सब नामों के मिलते ही उन कैदियों को छुड़ाने के लिए कार्यवाही की जाएगी।
पर जो बाहर हैं, उन्हें क्रांतिकारी हत्याएं बंद करके इसमें मदद करनी चाहिए। दोनों काम साथ-साथ नहीं किए जा सकते। हां, ऐसे राजनीतिक कैदी जरूर हैं, जिनकी मुक्ति किसी भी हालत में होनी ही चाहिए। मैं तो सब किसी को, जिनका इन बातों से संबंध है, यही आश्वासन दे सकता हूं कि इस ढिलाई का कारण इच्छा का अभाव नहीं है, बल्कि शक्ति की कमी है। यह याद रहे कि अगर कुछ ही महीनों में अंतिम सुलह हुई, तो उस वक्त तमाम राजनीतिक कैदी जरूर ही रिहा होंगे। अगर सुलह नहीं हुई, तो जो दूसरे राजनीतिक कैदियों को छुड़ाने की कोशिश में लगे हैं, वे खुद ही जेलों में जा बैठेंगे। -मोहनदास करमचंद गांधी