पढ़िए- किताबघर में आमादेर शांतिनिकेतन और मयूरपंख में स्वतंत्रता आंदोलन के गीत की समीक्षा

आमादेर शांतिनिकेतन किशोरावस्था के समय संजोई गई वह दुर्लभ पूंजी है जिसने शिवानी जैसी लेखिका को वैचारिक रूप से समृद्ध करते हुए भारतीयता के उन मानवीय पक्षों से परिचित कराया जिसके कारण उनका व्यक्तित्व निखर सका ।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Publish:Sun, 24 Oct 2021 06:15 AM (IST) Updated:Sun, 24 Oct 2021 06:15 AM (IST)
पढ़िए- किताबघर में आमादेर शांतिनिकेतन और मयूरपंख में स्वतंत्रता आंदोलन के गीत की समीक्षा
किताबघर और मयूरपंख में पुस्तक की समीक्षा।

शांतिनिकेतन का समावेशी संसार

कानपुर, यतीन्द्र मिश्र। हिंदी की प्रतिष्ठित रचनाकार और एक दौर में घर-घर पढ़ी गईं शिवानी की साहित्यिक देन विपुल है। आज जब हम आजादी के पचहत्तरवें वर्ष में ऐसी कृतियों का पुनर्पाठ कर रहे हैं, जिन्होंने समाज निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाई है, ऐसे में उनका लिखा ‘आमादेर शांतिनिकेतन’ जरूरी पाठ की तरह आधुनिक समय में प्रासंगिक हो उठता है। इस तर्क के चलते भी कि जब उच्च शिक्षा के लिए भारत में आज बड़े और सम्मानित विश्वविद्यालयों में दाखिला कठिन होता जा रहा है, लेखिका के ये संस्मरण, जो उनके जीवन-निर्माण में शिक्षा प्राप्ति के समय विश्वभारती शांतिनिकेतन जैसे संस्थान से जुड़े थे, शिक्षा के बड़े आदर्शों को सादगी के साथ अभिव्यक्त करते हैं। ‘आमादेर शांतिनिकेतन’ किशोरावस्था के समय संजोई गई वह दुर्लभ पूंजी है, जिसने शिवानी जैसी अप्रतिम लेखिका को वैचारिक रूप से समृद्ध करते हुए भारतीयता के उन मानवीय पक्षों से परिचित कराया, जिसके कारण उनका व्यक्तित्व निखर सका।

ये संस्मरण, आत्मीयजनों के रेखांकनों और सामान्य सी लगती दृश्यावली को विशाल फलक पर प्रतिष्ठित करते हैं। एक बार शिवानी को गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने यह हिदायत दी थी कि रचना-कर्म अपनी मातृभाषा में होना चाहिए। इसके फलस्वरूप उन्होंने हिंदी भाषा को अपने लेखनकर्म के लिए चुना। हालांकि वे पढ़ाई में इतनी मेधावी थीं कि खांर्टी हिंदी पट्टी से निकलकर जब वे शांतिनिकेतन पहुंची, तो वहां के समावेशी माहौल में बांग्ला भाषा पर भी एकाधिकार कर लिया। इस संस्मरण का हर एक पक्ष गुरुदेव की लोकरंजकता से तो जुड़ता ही है, बल्कि उस प्रखर दृष्टि को भी उद्भासित करता है, जिसके चलते भारत के उस नवजागरण काल में शांतिनिकेतन-अनुशासन, संस्कार, ज्ञान, आचरण और भारतीयता का लगभग पर्याय ही बन गया। इस लिहाज से भी यह किताब उस नवजागरण काल को नजदीक से देखने की ऐसी गाइड है, जिसमें परंपरा और आधुनिकता, संतुलित ढंग से एकाग्र है।

18 छोटे-छोटे निबंधों की यह पुस्तिका, विषय के स्तर पर फैलाव लिए हुए है, जिसका केंद्रीय विचार गुरुदेव और उनका शांतिनिकेतन है। कहा जा सकता है कि ये संस्मरण इस संस्थान का ऐसा रोचक और सांस्कृतिक पाठ भी है, जिनसे गुजरकर रवींद्रनाथ टैगोर के उस अभियान को गंभीरता से समझा जा सकता है, जिसके लिए उन्होंने भारत के सांस्कृतिक एकीकरण का स्वप्न देखते हुए इसका निर्माण किया था। अपनी भाषा और बोली के सान्निध्य में रहते हुए, प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करके और इस देश की सांस्कृतिक चेतना को आत्मसात करते हुए गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने अनूठे ढंग से जिस ज्ञानार्जन की परंपरा का सूत्र डाला था, वह इस शिक्षा संस्थान की एक छात्रा के हवाले से स्पंदित होकर यहां मुखरित हुआ है। ‘गुरुपल्ली’, ‘गुरुदेव की कर्मभूमि’, ‘गांधी जी और गुरुदेव’, ‘श्रीनिकेतन का मेला’ तथा ‘तुई रे पुरुष मानुष रे’ जैसे अध्याय लेखिका की उस सूक्ष्म दृष्टि के परिचायक हैं, जो उनके व्यक्तित्व निर्माण की आधारशिला रखते हैं।

दिनचर्या के सामान्य से प्रसंगों को भी शिवानी की कलम दर्ज करना नहीं भूलती। शांतिनिकेतन के सहज वातावरण में छात्रावास में लगातार तीनों समय महीनों तक आलू-परवल की सब्जी खाने का प्रसंग हो, जिससे ऊबकर छात्र-छात्राएं गुरुदेव के पास शिकायत लेकर पहुंचे थे या तनयेंद्रनाथ घोष की कक्षा में यदि कोई छात्र जम्हाई लेता पकड़ा जाता, तो उसकी तत्काल पेशी होती। तनय दा की दृष्टि में यह अक्षम्य अपराध था और वे इससे यह संकेत लेते थे कि पढ़ने वाले का ध्यान कहीं और है। ऐसे प्रसंगों की उन्मुक्त और जीवंत प्रस्तुति से एक और राह सहजता से निकलती दिखाई देती है कि गुरु-शिष्य संबंध की डोर कितनी आत्मीय, एक-दूसरे के सह-अस्तित्व को मान देने वाली और प्रेम से भरी हुई थी।

स्वयं बनारसी दास चतुर्वेदी भी अपनी गुरुपल्ली को याद करते हुए इस किताब की प्रस्तावना में कहते हैं कि अब मुझे इस बात का पछतावा आता है कि मैंने बांग्ला का विधिवत अध्ययन क्यों नहीं किया? तब मैं बांग्ला भाषा-भाषियों के हृदय तक पहुंच सकता था। शांतिनिकेतन की विभूतियों, आश्रम में गांधी दिवस, खेल-कूद मनोरंजन और पर्वों पर उत्सव की जीवंतता का चित्रण उस भारतीय अंत:चेतना को समझने के लिए कारगर है, जिसके लिए वर्तमान समय में ऐसे शिक्षा संस्थानों के पुनर्नवा होने की आवश्यकता है।

‘आमादेर शांतिनिकेतन’ कई चित्र-विचित्र अनुभवों का ऐसा पिटारा है, जिसके जादू से निकलना असंभव जान पड़ता है। जीवन को सार्थकता देने वाले गुरुओं की सात्विक दृष्टि का वहां के किसी शिक्षार्थी द्वारा आदरपूर्वक स्मरण भीतर कहीं श्रद्धा पैदा करता है। यह बात समझ में आती है कि शिवानी जिस परंपरा और वहां मिली शिक्षा के आधार पर भारतीय संस्कृति की समावेशिता को बार-बार रेखांकित करती हैं, उसके पीछे एक पूरी युगदृष्टि और उदार वैचारिकी का समावेश रहा है। हजारी प्रसाद द्विवेदी, सत्यजित रे, मृणालिनी साराभाई, निवेदिता बसु, सत्यप्रिय और देवप्रिय मुखर्जी, सुचित्रा मित्रा, कनिका बनर्जी और अरुंधती गुहा ठाकुरता जैसे छात्र-छात्राओं की गरिमामय उपस्थित से आलोकित शांतिनिकेतन की कहानी को पढ़ते हुए भारतीय नवजागरण काल के उस ऊर्जस्वित शिक्षा-देवालय के स्पंदन को भी पढ़ना सामयिक है, जिसके चलते हमने विभिन्न क्षेत्रों के ढेरों मूर्धन्य व्यक्तित्वों का चरित्र निर्माण होते हुए देखा है।

आमादेर शांतिनिकेतन

शिवानी

संस्मरण

पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2007

राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली

मूल्य: 65 रुपए

मेरे चरखे का टूटे न तार

कानपुर, यतीन्द्र मिश्र। भारत की स्वतंत्रता के लिए सामाजिक स्तर पर जो सांस्कृतिक अभियान चले, उसमें गीतों का बड़ा योगदान है। स्वतंत्र होने की हमारी भावना जैसे-जैसे तीव्र होती गई, वैसे ही गीतों पर भी क्रांति का रंग चढ़ता गया। लोक शैली में स्वतंत्रता के गीत गाए जाने लगे और प्रभातफेरियों के समय यह आवाज बुलंद होती गई- ‘उठो सोने वालों सबेरा हुआ है/वतन के फकीरों का फेरा हुआ है’ ऐसे ढेरों प्रचलित और अनाम गीतों का दुर्लभ संकलन नेशनल बुक ट्रस्ट ने ‘स्वतंत्रता आंदोलन के गीत’ के नाम से प्रकाशित किया है।

40 गीतों के इस दुर्लभ संचयन में श्यामलाल गुप्त पार्षद का ‘झंडा गीत’, बंकिमचंद्र चटर्जी का ‘वंदे मातरम’, सुभद्रा कुमारी चौहान का ‘सिंहासन हिल उठे’, ‘वंशीधर शुक्ल का ‘खूनी पर्चा’, चरखा गीत ‘चरखा चला-चला कर लेंगे’ तथा वीर सावरकर का ‘स्वतंत्रता स्रोत’ शामिल हैं। स्वदेशी और आत्मगौरव की भावना से अनुप्राणित इन गीतों का ऐतिहासिक महत्व है, जो सिर्फ गीत ही न होकर स्वतंत्रता आंदोलन के लिखित दस्तावेज भी हैं। आजादी के ‘हीरक जयंती’ वर्ष में एक प्रासंगिक किताब।

स्वतंत्रता आंदोलन के गीत

देवेश चंद्र

गीत

पहला संस्करण, 2001

नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली

मूल्य: 12 रुपए

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