अब नहीं दिखते बिल्ले और बच्चों की टोलियां
आयोग की खर्च पर पाबंदी से फीकी हुई चुनावी रंगत
जासं, हाथरस : लोकसभा चुनाव में जहां सियासी सरगर्मी जोर पकड़ रही है, वहीं रंगत एकदम फीकी है। प्रत्याशियों के बिल्लों के लिए लालायित गली-मुहल्लों में बच्चों की टोलियां भी अब यादों में सिमट कर रह गई हैं। इसके पीछे कारण चुनाव आयोग की सख्ती। चुनावी शोर आयोग के अंकुश से दबकर रह गया है।
करीब ढाई दशक पहले बेशक बच्चों का चुनाव में कोई योगदान नहीं होता था लेकिन उनकी उमंग सिर चढ़कर बोलती थी। बिल्लों के लिए गली मोहल्लों में दौड़ती बच्चों की टोलियां चुनावी माहौल का एहसास कराती थी। जब भी प्रचार वाहन आता बच्चे पीछे दौड़ लगाते थे। उन्हें कोई मतलब नहीं होता कि किस पार्टी व प्रत्याशी का है। सिर्फ बिल्ले पाने के ललक रहती। हाल यह होता था कि उनके हाथ में झंडा किसी दल का, टोपी किसी और की। जीतेगा भाई जीतेगा.., का शोर सुनाई देता था। अब चुनाव आयोग की सख्ती के चलते पहले की भांति न तो झंडा नजर आते, न बैनर। बिल्ले गायब हैं।
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जब हम बच्चे थे तो प्रचार वाहन के पीछे दौड़ते और बिल्ला एकत्र करते थे। घर देर से पहुंचते तो पिटाई होती थी। वे दिन आज भी याद हैं।
विक्रम सिंह
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चुनावी माहौल आते ही अजीब सी उमंग होती थी। रिक्शे के पीछे ही आवाज लगाते दौड़ते थे। आजकल के दौर में ऐसा कुछ नहीं है।
योगेश कुमार फोटो-55
पहले प्रचार सामग्री छापने वाले भी व्यस्त होते थे। चुनाव में हर हाथ को काम मिलता था। फुरसत नहीं होती थी। अब ऐसा कुछ नहीं है।
गनपत देव शर्मा