रोशनी की उम्मीद में घूमने लगे कुम्हारों के चाक

प्रिस शर्मा गढ़मुक्तेश्वर शहरों में भले ही मिट्टी के दीये की जगह बिजली की झालरों ने ले ली

By JagranEdited By: Publish:Wed, 21 Oct 2020 07:18 PM (IST) Updated:Wed, 21 Oct 2020 07:18 PM (IST)
रोशनी की उम्मीद में घूमने लगे कुम्हारों के चाक
रोशनी की उम्मीद में घूमने लगे कुम्हारों के चाक

प्रिस शर्मा, गढ़मुक्तेश्वर

शहरों में भले ही मिट्टी के दीये की जगह बिजली की झालरों ने ले ली हो, पर गांवों में अभी भी दीपावली पर मिट्टी के ही दीपक जलाए जाते हैं। यहां दीपावली बिना मिट्टी के दीपक के शुभ नहीं मानी जाती है। लोग गांव के मंदिर में तो अनिवार्य रूप से मिट्टी के ही दीपक रखते हैं। दीपावली का त्योहार आने में अब एक पखवारा भी नहीं बचा है। कुम्हारों ने मिट्टी के दीये, झामला, सुराई, कुलिया आदि बनाना शुरू कर दिया है।

गढ़ नगर, लिसड़ी, बक्सर, सिभावली, बहादुरगढ़ क्षेत्र में कुम्हारों के चाक तेजी से चल रहे हैं। बिजेंद्र सिंह, रूप किशोर, दीपक कुमार, अनिल ने बताया कि आधुनिकता के इस युग में मिट्टी के बर्तनों की मांग कम तो हुई है पर खत्म नहीं हुई है। कुल्हड़ों की जगह प्लास्टिक के गिलासों ने तो पशुओं को खिलाने के लिए मिट्टी के नादों की जगह सीमेंट व कंक्रीट के नादों ने ले लिया है। यहां तक कि दीपावली में पहले की तरह दीयों की भी बिक्री नहीं रह गई है। अब लोग सिर्फ शुभ करने के लिए ही इनकी खरीदारी करते हैं। 25, 50 दीपक हर घर में जलते ही हैं। मांग न होने के कारण बड़े बर्तन जैसे कूंडा, नाद आदि बनाना पूरी तरह बंद कर दिया गया। कुम्हारी कला पर मार हर तरफ से पड़ रही है। लोगों ने अपनी जरूरत के लिए जहां विकल्प तलाश लिए वहीं बर्तन बनाने के लिए मिट्टी मिलना भी मुश्किल हो गया है। पुश्तों से चली आ रही इस कला से अब पेट भरना मुश्किल है। त्योहारों को छोड़कर बाकी दिनों में मेहनत मजदूरी करके ही परिवार का भरण-पोषण करना पड़ता है। पहले गर्मी के मौसम में बर्तनों की अच्छी बिक्री हो जाती थी अब वह भी बंद हो चुका है।

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