नीम नदी: चिकित्सकों ने नदी किनारे पौधरोपण का रोडमैप किया तैयार, जागरण की मुहिम का असर
चिकित्सकों के साथ चर्चा करते हुए दैनिक जागरण की मुहिम से जुड़े मदन सैनी ने हर पहलू पर बताया। नीम नदी के पुनर्जीवित होने से नदी के आस-पास के क्षेत्र में जल स्तर जो काफी नीचे जा चुका है वह दोबारा से ऊपर आ जाएगा।
हापुड़ [मनोज त्यागी]। जन-जन के सहयोग से, जाग उठी है आस। नीम नदी रचने चली, एक नया इतिहास।।
डा. अशोक मैत्रेय की ये पंक्तियां बिलकुल सही हैं वास्तव में नीम नदी के इतिहास रचने जा रही है। नीम नदी से जिस तरह से लोग जुड़ते जा रहे हैं, तो यह नदी उदाहरण बनकर उभर रही है कि दूसरी नदी और तालाब जो विलुप्त हो चुके हैं उन्हें भी जीवित किया जा सकता है। दैनिक जागरण द्वारा नीम नदी को लेकर चलाए जा रहे अभियान से लोग लगातार जुड़ते जा रहे हैं। हर कोई इस नदी के पुनर्जीवन का साक्षी बनना चाहता है। आरोग्य अस्पताल के चिकित्सकों ने भी नीम नदी के बारे में जाना कि नदी क्यों विलु्प्त हुई और कैसे उसे पुनर्जीवन दिया जा सकता है।
चिकित्सकों के साथ चर्चा करते हुए दैनिक जागरण की मुहिम से जुड़े मदन सैनी ने हर पहलू पर बताया। नीम नदी के पुनर्जीवित होने से नदी के आस-पास के क्षेत्र में जल स्तर जो काफी नीचे जा चुका है वह दोबारा से ऊपर आ जाएगा। चिकित्सकों ने भी जागरण की मुहिम से जुड़ते हुए नदी किनारे पौधरोपण की योजना तैयार की। ताकि पर्यावरण शुद्ध हो और के साथ जो जीव जंतु प्रदूषण के कारण खत्म हो चुके हैं या फिर पलायन कर गए हैं। उन्हें भी जीवन मिल सकेगा।
आरोग्य अस्पताल के चेयरमैन डा. पराग ने कहा कि नदी पूरी तरह से जीवन की साइकिल है। पानी बिना जीवन ही नहीं है। इसके लिए पानी का संचयन जरूरी है। नदियों से अच्छा जल संचयन नहीं हो सकता है। नदी जहां-जहां से गुजरती है वहां-वहां जल स्तर को ऊपर करती जाती है। नीम नदी को पुनर्जीवित करने के लिए जो भी करना पड़ेगा हम सभी मिलकर करेंगे।
डा. पूनम मणि ने कहा कि मेरी दस साल की बेटी पर्यावरण की चिंता करती है। मै बेटी के साथ मिलकर एक हजार पौधे नदी के किनारे लगाऊंगी। ताकि पानी के साथ पर्यावरण भी शुद्ध हो। जिस तरह से केरल में प्राकृतिक वाॅशरूम बनाए गए हैं। इसी तरह से हमें भी व्यवस्था करनी होगी। ताकि पानी को व्यर्थ न बहने दिया जाए।
डा. अमित कुमार ने कहा कि सही बात यह है कि जिन जगहों पर पानी नहीं मिलता है या बहुत मुश्किल से मिलता है। उसकी कीमत तो उन लोगों से पूछी जानी चाहिए। नीम नदी को लेकर हम लोगों से जो भी बन सकेगा हम करेंगे। इतना ही नहीं हम लोग नदी पर जाकर श्रमदान भी करेंगे।
डा. प्रणय जायसवाल ने बताया कि नदी और तालाबों पर तो दूर की बात हम अपने घर में ही पानी की बचत के बारे में नहीं सोचते हैं। तमाम लोग ऐसे हैं जिनके घर में समरसिबल लगें और उनसे व्यर्थ पानी बहाया जा रहा है। ऐसे लोगों को भी जागरूक होना चाहिए। पानी की कीमत तभी पता चलेगी जब जमीन के नीचे से भी पानी खत्म हो जाएगा।
डा. अमित राठी के अनुसार, हम लोग अपने काम में लगे रहते हैं। पानी या पर्यावरण हम सभी कि लिए कितना महत्वपूर्ण है। इसके बारे में जानते सभी हैं पर कोई इस पर काम करने के लिए आगे नहीं आता है। दैनिक जागरण ने नदी को बचाने की मुहिम शुरू की। यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस बात को सभी को समझना होगा।
मयंक दीक्षित ने बताया कि जिस तरह से बचपन की बातें सभी को याद रहती हैं। उसी तरह से हमें बच्चों को नदी और तालाबों के महत्व के बारे में जानकारी देनी चाहिए। उन्हें पानी किस तरह से बचाया जा सकता है और किस तरह से प्रकृति के लिए काम किया जा सकता है। यह पहल हमें घर से लेकर स्कूल तक करनी चाहिए।
कथा के आधार पर नदियों की उपयोगिता
कथा और जनश्रुतियों के आधार पर नदी पुत्र रमन कांत त्यागी द्वारा खोजा गया नीम नदी का इतिहास को लेकर दैनिक जागरण ने सीरिज शुरू की है।
शनिवार के अंक से आगे की जानकारी
धीरे-धीरे एक जलाशय का स्थान अनेक जलाशयों ने ले लिया। फिर कुएं बनने लगे। कुओं के बाद घर-घर में नल लगने लगे तो जलाशय और कुएं समाप्त होने लगे गांव का एक जगह एकत्रित होना बन्द हो गया। समरसता एवं एकता छिटकने लगी। एक तालाब के बराबर का पानी एक घर में प्रयुक्त होने लगा तो पानी कम होने लगा। मिट्टी निकलनी बन्द हुई तो जलाशय के जलग्रहण की क्षमता पर ग्रहण लग गया और वे सूखने लगे। कुओं से पानी लेना बन्द हुआ तो पानी खींचने वालीं विशेष कर स्त्रियों की कमर-पेडू में दर्द रहने लगा। उनका स्वास्थ्य प्रभावित हुआ तो और उनमें अनेक रोगों ने घर बसा लिया। जब तक स्त्रियां कुएं से पानी खींचती और चक्की पर हाथ से अनाज पीसतीं रही तब तक वे निरोग रहीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जलाशय क्या समाप्त हुए जीवन ही असहाय-आश्रयहीन होकर रह गया है।
यदि शरीर संरचना विज्ञान की बात करें तो मानव शरीर स्वयं में एक चलता फिरता जलाशय है। शरीर का 70 प्रतिशत भाग जल है जबकि शेष 30 प्रतिशत अन्य पदार्थ। मस्तिष्क में 85 प्रतिशत, रक्त में 88 प्रतिशत, मांसपेशियों में 75 प्रतिशत तथा अस्थियों में 22 प्रतिशत जल पाया जाता है। अर्थात हमारा शरीर भी जलाशय ही है। शास्त्रों में जलाशय एवं वृक्षारोपण के परलोकगामी वचनों से प्रभावित होकर ही अनेक जलाशयों का निर्माण हुआ। तत्सम्बन्धी वचनों में से अनेक वचन आप गत पृष्ठों पर पढ़ चुके हैं।
अपने अनुभव की एक बात आपको और बता देना चाहते हैं कि प्राकृतिक नदियों एवं जलाशयों का निर्माण ईश्वर ने मनुष्य के लिए नहीं बल्कि पशु-पक्षियों के लिए ही किया है क्योंकि मनुष्य तो इसकी व्यवस्था अपनी ईश्वर प्रदत्त बृद्धि से कर सकता है लेकिन पशु-पक्षी नहीं। इसी प्रकार वर्षा का निर्माण ईश्वर ने फसलों के लिए नहीं अपितु वन एवं अनारक्षित वृक्षों-वनस्पतियों के लिए ही किया है। क्योंकि उन्हें कोई नहीं सींचेगा। मनुष्य तो केवल उन्हें काटेगा ही और वृक्षों का निर्माण गर्मी में जानवरों के आश्रय एवं पक्षियों के घोंसलों के लिए किया गया तो घास आदि वनस्पतियों का निर्माण पशु-पक्षियों के लिए भोजन के रूप में किया गया।
अर्थात यदि पशु-पक्षी नहीं रहेंगे तो पृथ्वी पर जल स्रोत भी नहीं रहेंगे और यदि वृक्ष नहीं रहेंगे तो वर्षा नहीं होगी। वर्तमान में यही हो भी रहा है। अरब देशों में जहां पशु एवं वृक्षादि नहीं हैं वहां पानी और वर्षा भी नहीं है। जैसे-जैसे यहां पशु और वृक्ष कम होते जा रहे हैं वैसे-वैसे ही जल स्रोत एवं वर्षा भी कम होती जा रही है। अर्थात पृथ्वी-जल-पशुपक्षी-वर्षा-वायु आदि समस्त प्राकृतिक तत्वों का आपस में एवं ईश्वर से सीधा तारतम्य-सम्पर्क अथवा मानसिक संवाद स्थापित है। जैसे ही इन्हें कोई कष्ट अथवा आवश्यकता होती है ईश्वर तुरन्त दूर करने का प्रयत्न करता है।
आज स्थिति जल के अभाव तक आ पहुंची है। प्राचीन जल संस्कृति के पदचिन्हों पर चलकर इसे बचाया जा सकता है। वरना पानी के लिए संघर्ष तो प्रारम्भ हो ही चुका है जिसे युद्ध में बदलते अधिक समय नहीं लगेगा।