गोरखपुर से साप्ताहिक कालम: कोरोना भी बोलता है, सुनिए तो सही Gorakhpur News
अगर कोई राजा की तरह दिखते हुए दूसरे से खुद को रंक मानने की उम्मीद पालता है तो यह उसकी नासमझी कही जाएगी। भेष से ही भीख मिलती है यह कहावत यूं ही नहीं बनी। कहावत आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।
गोरखपुर, डा. राकेश राय। कोरोना संक्रमण की अगली लहर से बचाव के लिए इन दिनों लोगों को जागरूक करने में शासन से लेकर प्रशासन तक पूरी शिद्दत से लगा हुआ है। पर शहर के एक नेताजी की उनके प्रयास के तरीके से नाइत्तेफाकी है। उनका मानना है कि लोगों को कोरोना के बारे में बताने के लिए शासन-प्रशासन को अपना अंदाजे-बयां बदलना होगा। ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करना होगा, जो आसानी से सबके गले उतर जाएं। बीते दिन पान के एक पुराने ठीहे पर वह कुछ इसी अंदाज में लोगों को जागरूक करते दिखे। बोले, कोरोना भी बोलता है, उसे सुनने के लिए कान नहीं दिल-दिमाग खोलकर रखना होगा। दिल और दिमाग जब बेचैन होने लगें तो समझ लीजिए कि कोरोना की आवाज आप तक पहुंच गई, और फिर सतर्कता में बिल्कुल देर मत कीजिए। सतर्क नहीं हुए तो कोरोना के रूप में बिना आवाज की लाठी आपके सिर पर पड़नी तय हो जाएगी।
भेष रहेगा तभी मिलेगी भीख
अगर कोई राजा की तरह दिखते हुए दूसरे से खुद को रंक मानने की उम्मीद पालता है, तो यह उसकी नासमझी कही जाएगी। भेष से ही भीख मिलती है, यह कहावत यूं ही नहीं बनी। कहावत आज भी कितनी प्रासंगिक है, इसकी बानगी बीते दिनों प्रदेश के मुखिया के जनता दर्शन में देखने को मिली। हुआ यूं कि जनता दर्शन में पहुंची एक महिला मुखिया तक अपनी समस्या पहुंचाने के लिए फूट-फूट कर रो रही थी। उसकी दशा देख पुलिस वालों को दया आ गई और उन्होंने बिना कतार के उसे मुखिया तक पहुंचा दिया। समस्या बताकर जब वह लौटी तो उसके चेहरे पर रुलाई की जगह मुस्कान थी। एक पुलिस वाले ने जब उसका बदला रूप देखा और इसकी वजह पूछी तो महिला का सवाल भरा जवाब सुन अवाक रह गया। विजयी अंदाज में महिला ने कहा, अगर वह पहले मुस्कुराती तो पुलिस उसे मुखिया तक पहुंचने देती क्या?
हर्रे लगे न फिटकिरी, रंग चोखा
शिक्षा के सबसे बड़े मंदिर को राज्य की बजाय केंद्र की सरपरस्ती मिल जाए, इसे लेकर आए दिन आवाज उठती है। गुरुजी लोगों से लेकर विद्यार्थी तक समय-समय पर इसकी वकालत करते दिखते हैं। विद्यार्थी तो सहूलियत के नजरिए से इसकी मांग करते हैं, लेकिन गुरुजी लोगों का मकसद रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाना होता है। दरअसल राज्य का दर्जा होने से उन्हें 62 की उम्र में ही अध्ययन-अध्यापन को बाय-बाय कहना पड़ता है, जबकि केंद्र की मुहर लगते ही इस काम के लिए उनका रजिस्ट्रेशन 65 बरस तक के लिए हो जाएगा। रिटायरमेंट के कगार पर पहुंच चुके एक गुरुजी इसे लेकर बीते दिन सार्वजनिक रूप से खुल गए। बोले, राज्य और केंद्र से हमें क्या लेना-देना। हमारा तो मतलब सिर्फ तीन साल नौकरी बढ़ने से है। यह सुनकर पास खड़े गुरुजी लोग समर्थन भरे अंदाज में खुलकर हंस पड़े। मानो उनके दिल की बात किसी ने कह दी हो।
हमें तो भाई बस 65 चाहिए
शिक्षा के सबसे बड़े मंदिर में बीते एक पखवारे से गुरुजी लोग शोध की गुणवत्ता बढ़ाने और पुराने छात्रों को संजोने में जुटे हैं। इससे ऐसा समझने की गलती हरगिज न करिएगा कि इसके लिए वह कोई भागदौड़ कर रहे। दोनों काम बड़े आराम से विभाग में बैठे-बैठे ही हो रहे। मजे की बात यह है कि इस काम से वह बिना किसी झंझट के दुनिया भर के विद्वानों और पुराने विद्यार्थियों को जोड़ने में सफल रहे हैं। यह सहूलियत उन्हें कोरोना संक्रमण के चलते मिल गई है। शारीरिक दूरी बनाने के चक्कर में सबकुछ आनलाइन जो हो गया है। इससे उन गुरुजी लोगों की बल्ले-बल्ले हो गई है, जो आयोजनों के लिए भागदौड़ से कतराते रहे हैं। ऐसे ही एक गुरुजी एक सार्वजनिक स्थान पर इस नई व्यवस्था की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते नजर आए। बोले, र्हे लगे न फिटकिरी, रंग चोखा वाले ऐसे आयोजन निरंतर होते रहने चाहिए।