रास नहीं आ रहा आस्था का उल्लास Gorakhpur News

गोरखपुर से साप्‍ताहिक कालम में इस बार पूर्वोत्‍तर रेलवे के कर्मचारियों और अधिकारियों की कार्य प्रणाली पर फोकस करती रिपोर्ट प्रकाशित की गई है। इसमें उनके दिनचर्या से संबंधित जानकारी भी है। आप भी पढ़ें गोरखपुर से प्रेम नारायण द्विवेदी का साप्‍ताहिक कालम-मुसाफिर हूं यारों----

By Satish chand shuklaEdited By: Publish:Tue, 12 Jan 2021 05:29 PM (IST) Updated:Tue, 12 Jan 2021 05:29 PM (IST)
रास नहीं आ रहा आस्था का उल्लास Gorakhpur News
साप्‍ताहिक कालम मुसफिर हूं यारो के लिए चित्र।

प्रेम नारायण द्विवेदी, गोरखपुर। भारतीय रेल को जीवन रेखा कहा गया है। यह लोक कल्याणकारी सरकारी तंत्र है, जो लाभ की परवाह किए बिना आमजन की सेवा करता रहा है, लेकिन लाकडाउन के बाद शायद यह परिभाषा बदल गई है। यही वजह है कि हर तरफ उत्सवों की धूम है, लेकिन पैसेंजर ट्रेनों को बोर्ड से हरी झंडी नहीं मिल रही। खिचड़ी और माघ मेले में भी पैसेंजर की जगह एक्सप्रेस ट्रेनें चलाई जा रही हैं। रेलवे स्टेशन पर बातचीत के दौरान इंटरसिटी से नौतनवा जा रहे एक यात्री की पीड़ा उभर आई। कहने लगे, कभी पड़ोसी मुल्क नेपाल के श्रद्धालुओं के लिए भी स्टेशनों पर पलकें बिछाई जाती थीं। आज रेलवे उन यात्रियों से स्पेशल और आरक्षित के नाम पर अतिरिक्त किराया वसूल रहा है, जो पूरे साल बाबा गोरक्षनाथ को खिचड़ी चढ़ाने और प्रयागराज में डुबकी लगाने का इंतजार करते हैं। लगता है, रेलवे को आस्था का उल्लास रास नहीं आ रहा।

रेलवे में स्पेशल का खेल

पूर्वांचल की जनता नियमित ट्रेनों के चलने का इंतजार कर रही है, जबकि रेलवे में स्पेशल का खेल चल रहा है। अब तो कर्मचारी संगठनों ने भी नियमित ट्रेनों को चलाने की मांग शुरू कर दी है, लेकिन बोर्ड है कि उसके कान पर जूं तक नहीं रेंग रहा। पिछले सप्ताह एक कर्मचारी संगठन के दफ्तर में ट्रेनों को लेकर चर्चा चल रही थी। एक पदाधिकारी का कहना था कि रेलवे प्रशासन और बोर्ड एक-दूसरे पर ठेल रहे हैं। रेलवे बोर्ड जनरल टिकट काउंटर खोलने का आदेश देकर बैकफुट पर आ गया। वहीं रेलवे प्रशासन सवारी गाडिय़ों का प्रस्ताव तैयार कर पीछे हट गया। इसका फायदा, रोडवेज ने उठाया। कोरोना काल ही नहीं पिछले साल की भी भरपाई करते हुए गोरखपुर परिक्षेत्र ने छह करोड़ साठ लाख का लाभ अर्जित कर लिया। इस पर दूसरे पदाधिकारी ने कहा, यहां स्पेशल का खेल है इसलिए मलाई कोई और उड़ा रहा है।

अंदरखाने में नंबरगेम की लड़ाई

पिछले माह एक यूनियन का वार्षिक अधिवेशन हुआ। नई कार्यकारिणी गठित हुई। मजबूरी कह लें या कुछ और...। पदाधिकारियों ने परंपरा को आगे बढ़ाते हुए उच्च पद पर विश्वास जताया और वर्षों से चले आ रहे नाम को ताज पहना दिया। उस नाम में ही यूनियन की विश्वसनीयता समाई हुई है। उस नाम के बाद दूसरा कौन है, यह आज तक स्पष्ट नहीं हो पाया। जिसने कोशिश की, वह साइड लाइन हो गया या कर दिया गया। इस बार के अधिवेशन में भी नंबर दो के नाम को लेकर खूब चर्चा और खींचतान हुई। कुछ नए नाम जुड़े, कुछ कटते-कटते बच गए। अधिवेशन समाप्त हुआ और फूलमाला पहनकर पदाधिकारियों ने रटे-रटाए पद व गोपनीयता की शपथ भी ले ली। लेकिन खैर, खून, खांसी, खुशी, बैर, प्रीत, मदपान... कभी छिपता है क्या। इसको लेकर अंदरखाने में एकबार फिर धुआं उठने के बाद नंबरगेम को बड़े सलीके से दबा दिया गया है।

अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग

कहावत है, एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं, लेकिन मान्यता प्राप्त दोनों फेडरेशनों ने रेल मंत्रालय और बोर्ड से निजीकरण और निगमीकरण के खिलाफ लड़ाई में एक म्यान में कई तलवारें रखने की योजना तैयार कर ली है, ताकि दिल्ली में उनके पैर जमे रहें। जोन स्तर के संगठनों को फेडरेशनों की यह योजना रास नहीं आ रही। तभी तो पूर्वोत्तर रेलवे के प्रमुख कर्मचारी संगठन 17 संगठनों को मिलाकर गठित राष्ट्रीय समन्वय समिति पर चर्चा तक नहीं करते। एक तरफ एक फेडरेशन के वरिष्ठ पदाधिकारी गोरखपुर में आकर समन्वय समिति की घोषणा करते हैं। दूसरी तरफ दूसरे संगठन के पदाधिकारी बाहें चढ़ाते हुए समन्वय समिति की खिल्ली उड़ाते हैं। यह तब है जब फेडरेशनों के दम पर स्थानीय संगठनों की दुकानदारी चलती है। दरअसल, एक मंच पर आंदोलन शुरू होते ही संगठनों की पूछ खत्म हो जाएगी, इसलिए तो सब अपनी डफली, अपना राग अलाप रहे हैं।

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