मुसाफिर हूं यारों : बिल्ली की तरह आंख बंदकर पी गए बजट Gorakhpur News
रेलवे और रेलवे कर्मचारियों की कार्य प्रणाली के बारे में ऐसी जानकारी जिसे कॉलम के माध्यम से बताया जा रहा है। अच्छा लगेगा आप भी पढ़कर आनंद लें। गोरखपुर से प्रेम नारायण द्विवेदी का साप्ताहिक कॉलम मुसाफिर हूं यारों---
प्रेम नारायण द्विवेदी, गोरखपुर। बिल्ली स्वभाव है कि उसे जब दूध पीना होता है तो वह आंखें बंद कर लेती है। उसे लगता है कि आंख बंद कर लेने से उसे कोई देख नहीं पाएगा, लेकिन यह उसका भ्रम है। देखने वालों की नजरें तो खुली ही रहती हैं। पूर्वोत्तर रेलवे मुख्यालय में भी एक ऐसा विभाग है, जहां के अधिकारी बिल्ली की तरह व्यवहार कर रहे हैं। 'अदृश्य शत्रुÓ से लडऩे के लिए रेलवे प्रशासन ने भारी-भरकम बजट दे दिया। साहब लोगों को लगा बजट बिना मतलब मास्क और सैनिटाइजर पर खर्च हो जाएगा। क्यों न मिल बांटकर बजट का उपयोग कर लिया जाएगा। आखिर, कोरोना सबको होना ही है। विभाग में कोरोना मंडराता रहा और साहब लोग और उनके मातहत योद्धा बनकर बजट का धन पुरस्कार के रूप में पी गए, लेकिन अंदरखाने में लोगों को भनक तो लग ही गई। जो योद्धा नहीं बन पाए, वे खूब चटखारे ले रहे हैं।
न उगलते बन रहा, न निगलते
रेल कर्मचारियों के लिए रेलवे बोर्ड की पार्सल और किसान एक्सप्रेस गले की फांस बन गई है। कोरोना काल में किसानों और व्यापारियों को राहत देने के लिए देशभर में पार्सल और किसान एक्सप्रेस ट्रेनों की सरकारी घोषणा की गई है। कुछ पार्सल और एक किसान एक्सप्रेस गोरखपुर की भी झोली में है। इस सौगात की दिक्कत यह है कि इन ट्रेनों के उपभोक्ता ही नहीं मिल रहे। उत्पादों की बुङ्क्षकग के लिए संबंधित कर्मचारी दबाव में हैं। वे नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे घूम रहे हैं, लेकिन एक भी उपभोक्ता स्टेशन पर नहीं चढ़ रहे। वे रेलवे की कहानी जानते हैं। इस कोरोना काल में किसी भी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहते। कहते भी हैं, जबतक कागजी खानापूरी करेंगे, तबतक हमारा माल मंडी में पहुंच जाएगा। अब रेलवे पार्सल और किसान एक्सप्रेस चलाकर फंस गया है। उसके सामने सांप-छछुंदर जैसी स्थिति बन गई है। न उगलते बन रहा और न निगलते।
छूटता जा रहा रेलवे का साथ
सड़क पर भीड़ देख मोटरसाइकिल रेलवे बस डिपो की तरफ मुड़ गई। परिसर में यात्रियों के पास पहिए रुक गए। कुछ देवरिया तो कुछ कुशीनगर के लिए बस का इंतजार कर रहे थे। भीड़ में खड़े वर्माजी से अभी कुछ पूछता कि वह दूरी बनाते हुए बगल में आकर खड़े हो गए। घर जा रहे हैं। अब तो यह बस ही सहारा है। इसमें भी बहुत डर लगता है। जीवन बीत गया, इंटरसिटी और पैसेंजर से यात्रा करते। एक साल रिटायरमेंट बचा है। लगता है, बिना ट्रेन देखे ही सेवानिवृत्त हो जाऊंगा। उनके बगल में खड़े विश्वविवद्यालय में तैनात शुक्लाजी से भी रहा नहीं गया। बीच में ही बोल पड़े, स्पेशल के बाद क्लोन ट्रेनें चलने लगी, लेकिन इंटरसिटी और पैसेंजर की तरफ ध्यान ही नहीं है। दिल्ली में तो मेट्रो भी चलने लगी। यहां भी डेमू या मेमू चला देते। तबतक उनकी बस आ गई और वे चल पड़े।
अरे भाई, कौन करेगा घाटे की भरपाई
आपदा को अवसर में बदलना तो कोई रेलवे से सीखे। लॉकडाउन में जब पूर्वांचल के कामगार सड़क पर आए तो श्रमिक ट्रेनें चला दी। जनरल कोचों के लिए स्लीपर का किराया वसूला। किरकिरी हुई तो किराया माफ कर सहानुभूति बटोरी गई। खैर, कामगार धक्के खाते हुए किसी तरह घर पहुंचे। अब अनलॉक में कामगार वापस जाने लगे हैं। उन्हें दिल्ली, मुंबई, पुणे, सूरत, बेंगलुरु और कोलकाता के लिए ट्रेनों की जरूरत है, लेकिन रेलवे प्रशासन नियमित ट्रेनों की बजाय स्पेशल, क्लोन, पार्सल और किसान ट्रेनें चलाने लगा है। क्लोन ट्रेनों का किराया तो सामान्य से डेढ़-दो गुना अधिक लग रहा है। कामगार अब महंगे टिकट खरीदने को मजबूर हैं। स्टेशन पर टिकट लेकर खड़े एक कामगार की पीड़ा उभर ही गई। क्या महंगे टिकट वाले क्लोन और स्पेशल ट्रेनों में कोरोना संक्रमण नहीं फैलेगा। बगल में खड़े साथी का सवालनुमा ही जवाब था-अरे भाई, तो कौन करेगा घाटे की भरपाई।