जैसा देखा सुना : इशारों को समझो, राज को राज रहने दो Gorakhpur News
पढ़ें गोरखपुर से रजनीश त्रिपाठी का साप्ताहिक कालम जैसा देखा सुना---
रजनीश त्रिपाठी, गोरखपुर। आप मानें न मानें, जुगाड़ की गाड़ी से चलने वाली विकास विभाग की मैडम, हैं बहुत समझदार। इशारों को समझना और मजबूरी में ही सही, अपनी गलती को सुधार लेना उन्हें बखूबी आता है। यह साबित हुआ उस वाकये से जब मैडम ने अपनी गाड़ी की जरूरत पूरी करने के लिए विज्ञापन देकर ठीकेदारों को आमंत्रित कर लिया। इसके पहले तक मैडम की गाड़ी कर्मचारियों के चंदे से जुटाई गई रकम से चलती थी। मैडम के इशारे पर होने वाली वसूली से कर्मचारियों में आक्रोश पनपा तो दबी जुबान बगावती सुर बाहर आ गए। हमारा क्या, हमने 'जैसा देखा सुना वैसा लिख दिया। मैडम तक बात पहुंची, तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। आनन-फानन उन्होंने अपनी करीबी मातहत को बुलाया और चंदा प्रणाली खत्म कर नियम सम्मत तरीके से गाड़ी की व्यवस्था कराने का निर्देश दे दिया। महीनों से शोषण का शिकार हो रहे कर्मचारी जय-जयकार कर रहे हैं।
कुर्सी हटाओ, क्योंकि साहब हैं हम
दूध मथो चाहे दही, मुझे तो घी से मतलब है। इसे आदर्श वाक्य मानने वाले दारोगा हाल ही में चौकी प्रभारी बने हैं। चार्ज लेते ही उनके कारनामे अखबारों की सुर्खियां बनने लगे हैं। हाल की एक कारस्तानी ने न केवल उनकी सोच को उजागर किया, बल्कि चौकी पर सेकेंड अफसर के रूप में तैनात साथी दारोगा को भी दुखी किया। दरअसल पुराने चौकी प्रभारी ने साथी दारोगा को सम्मान देने के लिए अपनी जैसी कुर्सी मंगाई थी और बगल में लगवा दी थी। भले ही प्रभारी वो थे, लेकिन दूसरे दारोगा को भी बगल में बैठाते थे। नए चौकी प्रभारी को बगल वाली कुर्सी तब ज्यादा चुभने लगी, जब फरियादी पुराने दारोगा को पहचान उनके पास जाने लगे। चौकी प्रभारी को लगा कि फरियादी आएंगे नहीं तो आखिर मथे कैसे जाएंगे। फिर क्या था, आदेश दे दिया कि फैंसी कुर्सी हटाएं, साहब हम हैं, तो अकेले हम ही बैठेंगे।
इसको कहते हैं पावर गेम
कहते हैं, जो ताकतवर है, वही सही है। यह कहावत चरितार्थ हुई उस मनोरंजन स्थल को लेकर चल रहे विवाद में, जहां गर्मियों में नहाकर लोग अपना तन-मन शीतल करते हैं। यह जगह खुली, बंद हुई और फिर खुलने की राह पर है। तय नियम और कानून नहीं बदले, लेकिन समय के साथ परिस्थितियां बदल गईं। यह कैसे मुमकिन है कि एक ही नियम समय के साथ बदल जाए। यह संभव हुआ तो उसी पावर गेम से, जिसकी हम बात कर रहे हैं। उद्घाटन वाले जमाने में मालिक ताकतवर थे, तो सब सही था। संचालन के दौर में नए साहब आए, जिनकी मंशा कुछ और थी, तो वही नियम न जाने कैसे गलत हो गए। वक्त और साहब फिर बदले तो परिस्थितियां ही नहीं नियम-कानून भी बदल गए। अब सब फिर सही हो गया। हवाला भले ही आदेश का दिया जा रहा हो, लेकिन हकीकत तो जनता जानती ही है।
कौन सुनेगा-किसको सुनाएं, सो चुप रहते हैं
जिले के एक आला साहब की बातचीत की शैली ने मातहत अधिकारी ही नहीं कर्मचारी, व्यापारी से लेकर सत्ताधारी नेताओं तक को मर्माहत कर दिया है। साहब जब नए-नए आए थे, तो लोगों को बेहद शालीन और संजीदा लगे थे, लेकिन अब खुद को काम के बोझ से दबा दर्शाने वाले साहब की जुबान इतनी बिगड़ गई है कि उनकी हर बात में गाली शामिल हो गई है। साहब यह भी नहीं देखते-सोचते कि सामने कौन है। पिछले दिनों शहर के एक वयोवृद्ध व्यापारी नेता उनके शिकार हो गए, तो कोविड अस्पताल के लिए जगह की तलाश में कालोनी का निरीक्षण करते समय रिटायर्ड सैन्य अधिकारी ने कुछ सलाह दे दी तो साहब ने उन्हें भी जेल भेजने की धमकी देकर गालियों से नवाज दिया। मातहत आए दिन साहब की शैली से आहत होते रहते हैं, लेकिन करें तो क्या करें। कौन सुनेगा, किसको सुनाएं, इसलिए तो चुप रहते हैं।