Emergency in the mirror of the past: जन पर हावी हो गया तंत्र और छिन गई थी आजादी, गोरखपुर से हुई थी विरोध की शुरुआत

पूर्व केंद्रीय मंत्री और प्रदेश में मीसा के पहले बंदी शिव प्रताप शुक्ल कहते हैं कि लोकतांत्रिक देश की मुखिया ने जैसे ही तानाशाही का यह फैसला लिया एक झटके में स्वतंत्र देश के लोग एक बार फिर परतंत्र हो गए।

By Satish Chand ShuklaEdited By: Publish:Fri, 25 Jun 2021 04:05 PM (IST) Updated:Fri, 25 Jun 2021 04:05 PM (IST)
Emergency in the mirror of the past: जन पर हावी हो गया तंत्र और छिन गई थी आजादी, गोरखपुर से हुई थी विरोध की शुरुआत
राज्‍य सभा सदस्‍य एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री शिव प्रताप शुक्‍ल की फाइल फोटो, जागरण।

गोरखपुर, जेएनएन। 25 जून 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तत्कालीन परिस्थितियों को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताकर इमरजेंसी लागू कर दिया। उनके एक फैसले ने जन से तंत्र को अलग कर दिया। जिसने इसके खिलाफ आवाज उठाई या इसके लिए सोचा भी, उसे तत्काल जेल की राह दिखा दी गई। विरोध बढ़ा तो अत्याचार भी बढ़ा दिया गया। दमन की प्रक्रिया लंबे समय तक चली। प्रदेश में हो रहे विरोध के दमन की शुरुआत गोरखपुर से हुई। यह इस आधार पर कहा जा सकता है कि राज्यसभा सदस्य शिव प्रताप शुक्ल प्रदेश के पहले लोकतंत्र सेनानी थे, जिन्हें मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया। अब जब उस काले दिन की तारीख एक बार फिर हमारे सामने आई है, तो उन दिनों को याद करके लोकतंत्र सुरक्षित रखने के लिए संकल्पित होने की जरूरत है।

एक फैसले से बंधक बन गया लोकतंत्र का लोक

पूर्व केंद्रीय मंत्री और प्रदेश में मीसा यानी मेंटिनेंस आफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट के पहले बंदी शिव प्रताप शुक्ल उस दिन को याद करते हैं, जब इमरजेंसी लगी थी। कहते हैं कि लोकतांत्रिक देश की मुखिया ने जैसे ही तानाशाही का यह फैसला लिया, एक झटके में स्वतंत्र देश के लोग एक बार फिर परतंत्र हो गए। जैसे ही आजादी छिनी जन के तंत्र में जन कमजोर पड़ गया और तंत्र हावी हो गया। लोकतंत्र को जैसे बंधक बना लिया गया हो। वह बताते हैं कि जैसे ही इमरजेंसी लगी, उन्हें तत्काल ऐसे गिरफ्तार किया गया, जैसे वह देशद्रोही हों। उसके बाद तो वह लोग खोज-खोज कर जेल में ठूस दिए गए, जो लोकतंत्र के हिमायती थे। जेल में भी ऐसे दुव्र्यवहार किया गया, जैसे ब्रिटिश हुकूमत फिर से लौट आई हो। जनता ने इस जबरन थोपी गई परतंत्रता का तत्काल तो जवाब नहीं दिया लेकिन चुनाव में यह दिखा दिया कि ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती।

कोई अपराध नहीं फिर भी अपराधी थे हम लोग

सहजनवां के विधायक और मीसा बंदी शीतल पांडेय इमरजेंसी लगने के बाद अचानक बदले हालात की चर्चा करके सिहर जाते हैं। बताते हैं कि लोकतंत्र पर नौकरशाही इस कदर प्रभावी हो गई थी कि आजादी बेमानी सी लगने लगी थी। बिना किसी गलती के लोग ऐसे जेल भेजे जा रहे थे, जैसे उन्होंने कोई बड़ा अपराध किया हो। अत्याचार का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस दौरान मेरी मां का निधन हो गया तो मुझे उनके अंतिम दर्शन तक की अनुमति नहीं मिल सकी। इसे लेकर शासन-प्रशासन की जमकर थू-थू हुई। ऐसा मेरे ही नहीं बहुत से उन लोगों के साथ हुआ, जिन्हें इंदिरा की इमरजेंसी नागवार लगी। उस समय की स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र में सरकार के कृत्य का विरोध करने के लिए लोगों को भेष बदलकर अपनी पहचान छिपानी पड़ती थी। मंूछ वालों को मंूछ छिलानी पड़ी थी तो बिना मूंछ वालों को मजबूरी में मंूछ रखनी पड़ी थी। यह सिलसिला तब तक चला, जब तक इमरजेंसी वापस नहीं हो गई।

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