थैलीसीमिया के मरीजों में संक्रमण की होगी जांच, हर 15 दिन पर चढ़ाया जाता है खून

ब्लड बैंक प्रभारी राजेश कुमार राय ने बताया कि मेडिकल कालेज में 120 थैलीसीमिया के पंजीकृत मरीज हैं। हर माह 55 से 60 मरीजों को खून चढ़ाया जाता है। हालांकि जो खून चढ़ाया जाता है वह पूरी तरह संक्रमण मुक्त होता है।

By Satish chand shuklaEdited By: Publish:Tue, 02 Mar 2021 06:30 AM (IST) Updated:Tue, 02 Mar 2021 06:21 PM (IST)
थैलीसीमिया के मरीजों में संक्रमण की होगी जांच, हर 15 दिन पर चढ़ाया जाता है खून
थैलीसीमिया मरीज को रक्‍त देने के संबंध में प्रतीकात्‍मक फाइल फोटो, जेएनएन।

गोरखपुर, जेएनएन। थैलीसीमिया के मरीजों को 15 से 21 दिन पर खून चढ़ाना होता है। खून के जरिये इन मरीजों में कोई संक्रमण तो नहीं जा रहा है, इसकी जांच की जाएगी। बाबा राघव दास मेडिकल कालेज (बीआरडी) में ऐसा पहली बार होने जा रहा है जिसकी जांच की जाएगी। जांच में यह भी देखा जाएगा कि किन बीमारियों की एंटीबाडी उनमें बनी है।

ब्लड बैंक प्रभारी राजेश कुमार राय ने बताया कि मेडिकल कालेज में 120 थैलीसीमिया के पंजीकृत मरीज हैं। हर माह 55 से 60 मरीजों को खून चढ़ाया जाता है। हालांकि जो खून चढ़ाया जाता है वह पूरी संक्रमण मुक्त होता है। उसकी जांच पहले की जा चुकी होती है। फिर भी मरीजों के शरीर में जाने के बाद यदि कोई रियेक्शन होता है और उसका दुष्प्रभाव किन अंगों पर पड़ रहा है, यह जांच में पता चल जाएगा और समय रहते उसका इलाज हो सकेगा।

निश्शुल्क मिलता है खून

थैलीसीमिया के मरीजों को निश्शुल्क खून देने का शासन ने निर्देश जारी किया है। सरकारी व सभी पंजीकृत निजी अस्पतालों के ब्लड बैंकों से उन्हें निश्शुल्क खून उपलब्ध कराने का नियम है। ब्लड बैंक प्रभारी राजेश कुमार राय ने बताया कि मरीजों को प्राथमिकता के आधार पर खून उपलब्ध कराया जाता है। ब्लड बैंक ने मरीजों के खून की जांच करने का निर्णय लिया है ताकि किसी भी प्रकार के संक्रमण का पता चल सके और उसका इलाज किया जा सके।

अनुवांशिक बीमारी है थैलीसीमिया

थैलीसीमिया अनुवांशिक बीमारी है। यदि माता-पिता में से किसी को यह बीमारी है तो ब'चे में होने की आशंका प्रबल हो जाती है। इस बीमारी में खून नहीं बनता है। ब'चा लगातार दुबला होता जाता है। उसका वजन नहीं बढ़ता है। चेहरा सूखा रहता है। वह अक्सर बीमार रहता है। हर 15 से 21 दिन पर उसे खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है। इस बीमारी का पता तीन माह की उम्र के बाद ही चल जाता है। 

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