पांच सालों में इस गांव की आबादी घटकर हो गई आधी, जानिए क्या है मामला
डुमरियागंज क्षेत्र के दक्षिण छोर पर बहने वाली राप्ती हर साल भारी पैमाने पर तबाही मचाती है। इस बार भी विशुनपुर औरंगाबाद गांव समेत दर्जनों गांव के लोग डर के बीच जी रहे हैं। कुछ पलायन के लिए मजबूर हुए तो कुछ अगल-बगल के गांवों में बस गए।
गोरखपुर, जागरण संवाददाता : सिद्धार्थनगर जिले के डुमरियागंज तहसील क्षेत्र के दक्षिण छोर पर बहने वाली राप्ती हर साल भारी पैमाने पर तबाही मचाती है। इस बार भी तटवर्ती दर्जनों गांव के लोग डर के साए में रहकर जीवन यापन करने को मजबूर हैं। कुछ लोग अपना घर-द्वार सब राप्ती की कोख में गंवाकर पलायन करने को मजबूर हो गए। आज तक इन गांवों को बाढ़ से बचाने के लिए ठोस कार्ययोजना नहीं बनी। प्रति वर्ष बाढ़ चौकी, टूटी नावों व कुछ बाढ़ राहत सामाग्री के अलावा यहां के लोगों को कुछ नहीं मिलता।
2014 में विशुनपुर औरंगाबाद गांव की आबादी 1500 से अधिक थी
डुमरियागंज तहसील के विशुनपुर औरंगाबाद गांव की आबादी वर्ष 2014 में पंद्रह सौ से अधिक थी, आज आधी के लगभग बची है। बाकी लोग इस गांव के बाशिंदे तो हैं, लेकिन आसपास के गांव में जाकर बस गए। लगातार कटान के चलते नदी बिल्कुल गांव से सटकर बह रही है। इसी कटान के चलते गांव की अधिकतर आबादी यहां से पलायन कर गई। साथ ही कटान के चलते अधिकतर लोगों के खेत नदी के उस पार चले गए। खेत नदी के उस पार चले जाने के चलते गांव के लोगों को आर्थिक संकट से भी जूझना पड़ रहा है।
बरसात के दिनों में नदी पार करना हो जाता है खतरनाक
गेहूं की खेती तो किसी तरह हो जाती है, लेकिन बरसात के दिनों में भरी राप्ती पार करना मौत को दावत देने जैसा हो जाता है। यदि इस बार यहां जल्द ही कोई ठोस उपाय न किया गया तो बची खुची आबादी भी नदी में विलीन हो जाएगी। साथ ही यदि यह गांव कटा तो बिजौरा, जुड़ीकुइयां, आजाद नगर, बेलवा, बौनाजोत आदि का भी अस्तित्व संकट में आ जाएगा। इस गंभीर समस्या को जानते हुए भी शासन-प्रशासन गांव को सुरक्षा दे पाने में अक्षम बना हुआ है। गांव के लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती है और निकटतम सरकारी अस्पताल बिजौरा में है। विद्युत व्यवस्था से यह गांव जुड़ा हुआ है। इस मामले में एसडीएम त्रिभुवन ने कहा कि वह निरीक्षण करेंगे तत्काल जो भी उपाय संभव हैं, वह कराए जाएंगे। 72 करोड़ की मदद से दो वर्ष के भीतर व्यापक इंतजाम होंगे।
इनसे छिन गया गांव
गांव के रहने वाले मुकीम छत्तीसगढ़ तो लड्डन मुंबई रहकर आजीविका चलाते हैं। बताया कि गांव पर थोड़ी बहुत जो जमीन थी, उसे राप्ती ने काटकर अपने में पांच वर्ष पहले मिला लिया। कमाई का कोई जरिया न होने के चलते गांव से विस्थापित होना पड़ा। स्वजन भी साथ रहते हैं।