विंब-प्रतिबिंब/तो अपने इंजीनियर साहब क्या कर रहे थे?

काम भी न करना पड़े और नाम भी हो जाए फूल वाली पार्टी में अब ऐसा नहीं चलने वाला। पार्टी के काम के बोझ तले दबे एक नेताजी की यह व्यथा बीते दिनों साथियों से बातचीत में जुबां पर आ गई।

By Rahul SrivastavaEdited By: Publish:Fri, 24 Sep 2021 02:30 PM (IST) Updated:Fri, 24 Sep 2021 09:16 PM (IST)
विंब-प्रतिबिंब/तो अपने इंजीनियर साहब क्या कर रहे थे?
पं. दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय। फाइल फोटो

गोरखपुर, डा. राकेश राय : काम भी न करना पड़े और नाम भी हो जाए, फूल वाली पार्टी में अब ऐसा नहीं चलने वाला। ऐसी चाहत रखने वाले नेताओं को अब किसी और पार्टी का दामन थामना होगा। पार्टी के काम के बोझ तले दबे एक नेताजी की यह व्यथा बीते दिनों साथियों से बातचीत में जुबां पर आ गई। यह सुनना था कि एक और नेताजी फूट पड़े। बोले कि अगर पार्टी के काम का शत-प्रतिशत परिणाम देना है तो घर से संन्यास लेना होगा, वरना घर के लोग ही बाहर कर देंगे। तभी चाय की चुस्की ले रहे एक नेताजी तपाक से बोले, अच्छे-भले पेशे से जुड़ा था लेकिन इसी बीच नाम कमाने की धुन सवार हो गई और पार्टी की एक जिम्मेदारी अपने सिर ले ली। पता नहीं था, नाम कमाने में इतना काम करना होगा। नेतागिरी में भी कहीं इतना काम होता है?

जिसका दाम, उसी का नाम

पद तो जैसे-तैसे हासिल कर लिया पर अपनी यह उपलब्धि लोगों को बताएं कैसे? यह मशक्कत इन दिनों फूल वाली पार्टी के नेताओं में खूब देखने को मिल रही। कुछ नेता तो इसके लिए पहले शहर से बाहर जा रहे और फिर पहली बार आने का प्रचार-प्रसार कर अपने ही खर्च पर स्वागत करा रहे। यानी अपने फूल-माला से अपना ही स्वागत। दिक्कत उन नेताओं के साथ है, जो स्वागत का खर्च भी नहीं उठा सकते। एक ऐसा ही हास्यास्पद वाक्या बीते दिनों देखने को मिला। एक ही पद पर मनोनीत हुए तीन नेताओं ने एक साथ अपने स्वागत की योजना बनाई। गाजे-बाजे के साथ उन्होंंने शहर में प्रवेश भी किया लेकिन एक बात सबको खटक रही थी कि जब स्वागत तीनों का है तो माला सिर्फ एक गले मेें ही क्यों? तभी किसी ने दबी जुबां से तंज किया, अरे भाई! जो खर्चा किया है, वही तो माला पहनेगा।

तो अपने इंजीनियर साहब क्या कर रहे थे?

तकनीकी शिक्षा के सबसे बड़े मंदिर के एक गुरुजी जिले में बन रहे शिक्षा के एक नए बड़े मंदिर को लेकर अपने साथियों में खूब फैल रहे थे। खुलकर दावा कर रहे थे कि बतौर इंजीनियर उनकी तकनीकी सलाह पर ही शिक्षा का वह मंदिर बन रहा। इसे लेकर संस्थान से वह तरह-तरह की सहूलियत भी लेने से भी नहीं चूक रहे थे। पोल तब खुल गई जब लोकार्पण के दौरान प्रदेश के मुखिया द्वारा उन इंजीनियरों को सम्मानित किया गया, जिनका निर्माण में वास्तविक योगदान था। दावा करने वाले इंजीनियर उस सूची में कहीं दूर-दूर तक शामिल नहीं थे। फिर तो संस्थान में उनकी खूब किरकिरी हुई। कोई ऐसा विभाग नहीं था, जहां, दबी जुबां से इसे लेकर चर्चा नहीं हुई और तंज नहीं कसे गए। हर किसी की जुबां पर बस एक ही सवाल था, आखिर तब अपने इंजीनियर साहब वहां कौन सी सलाह दे रहे थे?

पैदल से तो कैजुअल भला

आराम के आदती हो चुके शिक्षा के सबसे बड़े मंदिर के कुछ गुरुजी लोगों को बीते दिनों बड़े गुरुजी का एक और फैसला भारी पड़ा। महीने के अंतिम कार्यदिवस पर परिसर में पेट्रोल-डीजल वाले वाहन न चलने देने का फैसला। जब यह संदेश गुरुजी लोगों तक पहुंचा तो कुछ ने तो इसका स्वागत किया पर कुछ के हाथपांव फूल गए। उन्हें लगा कि जैसे कोई आफत आ गई हो। फैसले से परेशान गुरुजी लोगों ने इससे बचने का रास्ता तलाशना शुरू कर दिया। कोई ई-रिक्शा खोजने लगा तो किसी ने अपनी पुरानी साइकिल की धूल झाड़नी शुरू कर दी। कुछ जो ऐसा करने मेें भी खुद को अक्षम पाने लगे, उन्होंने कैजुअल लीव लेने का रास्ता अपनाया। ऐसे ही एक गुरुजी से जब उस दिन परिसर में न आने की वजह पूछी गई तो उन्होंने साफ कहा, पैदल चलने की आदत तो रही नहीं, ऐसे में कैजुअल ही सहारा है।

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