बड़े दिल वाली हिंदी, देश के माथे की है हिंदी, आचार्यों ने इसे बताया लोगों की जरूरत की भाषा

14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सरकारी महकमों से लेकर निजी संस्‍थानों तक में हिंदी में काम-काज करने की शपथ ली जाती है। हिंदी दिवस को लेकर आचार्यों से बात की गई तो उन्‍होंनेे हिंदी को बेहद समृद्ध भाषा करार दिया।

By Navneet Prakash TripathiEdited By: Publish:Wed, 15 Sep 2021 07:05 AM (IST) Updated:Wed, 15 Sep 2021 07:05 AM (IST)
बड़े दिल वाली हिंदी, देश के माथे की है हिंदी, आचार्यों ने इसे बताया लोगों की जरूरत की भाषा
हिदी दिवस : बड़े दिल वाली हिंदी, देश के माथे की है हिंदी। प्रतीकात्‍मक फोटो

गोरखपुर, जागरण संवाददाता। सितंबर की शुरुआत के साथ ही हिंदी के प्रचार-प्रसार का सिलसिला शुरू हो गया है। कहीं सप्ताह मनाया जा रह तो कहीं पखवाड़े का आयोजन हो रहा। भाषणों में हिंदी को और अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए तमाम योजनाएं बन रही हैं। पर क्या वास्तव में हिंदी को इसकी जरूरत है। क्या वह अन्य भाषाओं की होड़ में पिछड़ रही है। इसे लेकर जागरण ने जब हिंदी के विद्वानों से चर्चा की तो इसे लेकर उनकी प्रतिक्रिया बहुत सकारात्मक रही। कहा, हिंदी का दिल बहुत बड़ा है। स्वीकार्यता इसका सबसे बड़ा गुण है। ऐसे में अंग्रेजी और अन्य भाषाओं को स्वीकार कर हिंदी ने खुद को समृद्ध् किया है। हिंदी लोगों की जरूरत है। यह जीवन की भाषा है। इसकी जरूरत हमेशा बनी रहेगी।

ग्रहणशीलता हिंदी की सबसे बडी खासियत

गोरखपुर विश्‍वविद्यालय में हिंदी विभाग के पूर्व अध्‍यक्ष प्रो. अनंद मिश्र कहते हैं कि हिंदी की सबसे बड़ी खासियत उसकी ग्रहणशीलता है। अपनी समृद्धि के लिए इसने हर भाषा के लोकप्रिय शब्दों को आत्मसात किया है। अंग्रेजी के भी उन शब्दों को लोगों की जरूरत मुताबिक सहज स्वीकार किया है। यही वजह है कि पूरे देश में इसकी आवश्यकता महसूस की जाती है और आगे भी की जाती रहेगी। दरअसल यह लोगों की जरूरत है। व्यापारिक जरूरतों के लिए इसकी सर्वाधिक ग्राह्यता है। पूरे देश में व्यापार का यह महत्वपूर्ण माध्यम है। हिंदी का लचीलापन ही इसे देश माथे की हिंदी बनाए हुए हैं। ऐसे में यह कहना कि हिंदी पिछड़ रही है या इसकी समृद्धि के लिए किसी विशिष्ट प्रयास की जरूरत है, इससे मैं इत्तेफाक नहीं रखता।

दिवस व पखवारा मनना हिंदी का अपमान

गोरखपुर विश्‍वविद्यालय में हिंदी विभाग के पूर्व अध्‍यक्ष प्रो. चितरंजन मिश्र कहते हैं कि हिंदी की समृद्धि के लिए होने वाले प्रयास को दिवस और पखवाड़े तक सिमटकर रह जाना दुखद है। यह हिंदी का अपमान भी है। हिंदी बेहद सहृदयी भाषा है। ग्रहणशीलता इसकी खासियत है। अंग्रेजी को भी इसने इसी सहृदयता के साथ ग्रहण किया है। इसी का फायदा अंग्रेजी को मिल रहा है और हिंदी कमजोर होती जा रही है। हालांकि हिंदी का नुकसान सृजनशीलता के स्तर पर नहीं हो रहा क्योंकि सृजन की प्रक्रिया अनवरत जारी है। यह नुकसान व्यावहारिकता के स्तर पर हो रहा है। या यूं कहें की हिंदी व्यवहार में पिछड़ रही है। यह नुकसान सृजनशीलता पर भी प्रभावी न हो जाए, बस इसी की हिंदी है।

हिंदी में है सभी भाषाओं को आत्‍मसात करने की क्षमता

गोरखपुर विश्‍वविद्यालय में हिंदी विभाग में शिक्षक प्रो. राजेश मल्‍ल कहते हैं कि हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है, जिसमें तमाम भाषाओं को आत्मसात करने क्षमता है और उसने ऐसा किया भी है। ऐसा इसलिए है कि देश में उसकी मान्यता संपर्क भाषा के रूप में भी है। अगर इसके विकास में कहीं कोई दिक्कत है तो वह यह है कि अभी तक हिंदी ज्ञान, विज्ञान और तकनीक की भाषा नहीं बन सकी है। यही वजह है कि कई बार वह उपेक्षित दिखाई देती है। जरूरत इस कमी को दूर करने की है। वह जीवन की भाषा तो है ही, इसके हर तरह के ज्ञान की भाषा बनाए जाने की जरूरत है। इस दिशा में सार्थक प्रयास होने चाहिए। हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़ा मनाने भर से हिंदी की समृद्ध सुनिश्चित नहीं की जा सकती। इसपर तथ्यात्मक कार्य की जरूरत है।

बडे दिल वाली भाषा है हिंदी 

गोरखपुर विश्‍वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रो. दीपक त्‍यागी कहते हैं कि हिंदी बड़े दिल वाली भाषा है। स्वीकार्य ही इसकी पहचान है। इसे भाषाओं का समुच्चय कहा जाए तो गलत नहीं होगा। ऐसे में मुझे नहीं लगता कि हिंदी कहीं से पिछड़ रही है या उसकी स्वीकार्यता में कहीं कोई कमी आई है। हिंदी में अंग्रेजी सहित किसी अन्य भाषा के शब्दों के प्रयोग को मैं हिंदी के विकास के रूप में लेता हूं। यह सिलसिला अनवरत जारी है और आगे भी रहेगा। दरअसल हिंदी भाषा से बढ़कर चेतना है। चेतना को कोई चुनौती दे ही नहीं सकता। इसलिए हिंदी के सामने भी कोई चुनौती नहीं है। रही बात हिंदी दिवस और पखवाड़ा मनाने की तो मैं इसे महज एक उत्सव मानता हूं। हिंदी पर चर्चा को दिवस या पखवाड़े में नहीं समेटा जा सकता।

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