Independence Day 2020: यहां-वहां, जहां-तहां, कहां-कहां नहीं रहा गोरखपुर Gorakhpur News
आजादी की पहली लड़ाई यानी 1857 की क्रांति से लेकर आखिरी लड़ाई यानी 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन तक यहां के रणबांकुरों की वीरता के किस्से मशहूर हैं।
गोरखपुर, जेएनएन। स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास गोरखपुर के योगदान के जिक्र के बिना अधूरा है। आजादी की पहली लड़ाई यानी 1857 की क्रांति से लेकर आखिरी लड़ाई यानी 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन तक यहां के रणबांकुरों की वीरता के किस्से मशहूर हैं। स्वतंत्रता दिवस वह अवसर है, जब हम आजादी हासिल करने में गोरखपुर की भूमिका को याद करें। इसके लिए हम उन स्थलों की जानकारी लेकर आपके बीच हैं, जहां आजादी के लिए कुर्बानी की दास्तां लिखी गई थी।
चौरीचौरा : जहां के कांड ने बदल दी आंदोलन की दिशा
गोरखपुर शहर से 22 किलोमीटर दूरी पर स्थित चौरीचौरा वह स्थान है, जहां पांच फरवरी 1922 को घटी एक घटना की वजह से दो वर्ष से चल रहे असहयोग आंदोलन को महात्मा गांधी ने स्थगित कर दिया था। यहां अहिंसात्मक सत्याग्रह कर रहे आंदोलनकारियों के ऊपर जब पुलिस ने फायर किया और 11 सत्याग्रही बलिदान हो गए तो उन्होंने थाने में आग लगा दी। इसमें 23 पुलिसकर्मियों की जलकर मौत हो गई थी।
डोहरिया कलां: रणबांकुरों ने लिया था अंग्रेजों से मोर्चा
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के ऐलान पर करो या मरो का नारा लगाते हुए 23 अगस्त,1942 को सहजनवां के डोहरिया कलां में आजादी के दीवानों ने ब्रिटिश हुकूमत से सीधा मोर्चा लिया था। नौ रणबांकुरों ने सीने पर गोलियां खाईं थी और देश के लिए कुर्बान हो गए थे। 23 गंभीर रूप से घायल हो गए थे। उसके बाद अंग्रेजों ने गांव वालों पर जमकर अत्याचार किया था।
गोरखपुर जेल: बिस्मिल के बलिदान का गवाह
अमर शहीद पं. रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी गोरखपुर में हुई थी। उन्हें 19 दिसंबर, 1927 को गोरखपुर जेल की कोठरी नंबर सात में फांसी के फंदे पर लटकाया गया। वह फांसी घर तो जेल में आज भी मौजूद है ही, लकड़ी का फ्रेम और लीवर भी आज तक सुरक्षित है। यहां तक कि बिस्मिल से जुड़े जेल के दस्तावेज और बिस्मिल के सामान की सूची भी जेल में संरक्षित है।
घंटाघर: बलिदान की गौरव-गाथा
उर्दू बाजार में मौजूद घंटाघर दर्जनों क्रांतिकारियों की गौरव-गाथा समेटे हुए है। आज जहां घंटाघर है, 1857 में वहां एक विशाल पाकड़ का पेड़ हुआ करता था। इसी पेड़ पर पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अली हसन जैसे देशभक्तों के साथ दर्जनों क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। 1930 में सेठ राम खेलावन और सेठ ठाकुर प्रसाद ने पिता सेठ चिगान साहू की याद में यहां एक मीनार सरीखी ऊंची इमारत का निर्माण कराया।
खूनीपुर: यहां बहा था क्रांतिकारियों का खून
खूनीपुर महज एक मोहल्ला ही नहीं बल्कि तारीख है जंग-ए-आजादी की। इस इलाके में रहने वाले बुजुर्गों के मुताबिक पहली जंग-ए-आजादी 1857 में इस मोहल्ले के लोगों ने बढ़-चढ़ भागीदारी की। जब अंग्रेजों को इस बात की जानकारी हुई तो उन्होंने वहां जमकर खून-खराबा किया। मोहल्ले में इतना खून बहा कि वहां की पहचान ही खून शब्द से जुड़ गई। यहां शहीदों की मजारों की बड़ी तादाद इस ऐतिहासिक तथ्य की गवाही है।
तरकुलहा देवी स्थल: बंधु सिंह चढ़ाते थे अंग्रेजों की बलि
शहर से 20 किलोमीटर पूरब तरकुलहा देवी मंदिर में जंग-ए-आजादी की पहली लड़ाई के दौरान अंग्रेजों की बलि चढ़ती थी। यह क्रांतिकारी कार्य डुमरी रियासत के बाबू बंधु सिंह करते थे। जब अंग्रेजों की इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने तलाशी अभियान चलाकर देश के कुछ गद्दारों की मदद से उन्हें पकड़ लिया और 12 अगस्त, 1857 को अलीनगर में फांसी पर चढ़ा दिया। बाद में इस स्थान पर बलि चढ़ाने की परंपरा चल पड़ी, जो आज भी कायम है।
मोती जेल: यहां दी जाती थी क्रांतिकारियों को यातना
लालडिग्गी के पास खंडहर के रूप में मौजूद टूटे-फूटे घरों की लंबी कतार कभी मोती जेल कही जाती थी। पहले यह सतासी राजा बसंत सिंह के किले का हिस्सा थी, जिसे अंग्रेजों ने 1857 की लड़ाई के दौरान जेलखाने में तब्दील कर दिया था। जिन क्रांतिकारियों को यातना देनी होती थी, उन्हें इसमें रखा जाता था। जेल में एक पाकड़ का पेड़ था। कहा जाता है कि 1857 की क्रांति के दौरान इस पेड़ पर करीब 300 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी।
बाले मियां का मैदान: महात्मा गांधी ऐतिहासिक भाषण का गवाह
यह वह स्थान है, जहां असहयोग आंदोलन के दौरान आठ फरवरी 1921 को महात्मा गांधी का ऐतिहासिक भाषण हुआ था। उनके भाषण ने समूचे पूर्वांचल में आजादी की अलख जगा दी थी। कथा सम्राट प्रेमचंद और शायर फिराक गोरखपुरी ने यहीं भाषण सुनने के बाद अपनी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था और आजादी की लड़ाई की कूद पड़े थे। भाषण सुनने के बाद आजादी की लड़ाई में पूर्वी उत्तर प्रदेश की भागीदारी बढ़ गई थी।