युग तुलसी ने प्रवाहित की मर्मस्पर्शी भाव भागीरथी

गोस्वामी तुलसीदास ने सुरसरि सम सब कर हित होई की भावना से यदि साढ़े चार शताब्दी पूर्व रामकथा का कालजयी गान किया तो युग तुलसी ने तुलसी के गायन की मर्मस्पर्शी भाव भागीरथी प्रवाहित की। उनकी भाव भागीरथी शाताधिक ग्रंथों के रूप में प्रवाहमान है और जिसका अवगाहन कर रामकथा के मुमुक्षु स्वयं को तृप्त करते हैं.

By JagranEdited By: Publish:Fri, 30 Oct 2020 12:38 AM (IST) Updated:Fri, 30 Oct 2020 12:38 AM (IST)
युग तुलसी ने प्रवाहित की मर्मस्पर्शी भाव भागीरथी
युग तुलसी ने प्रवाहित की मर्मस्पर्शी भाव भागीरथी

अयोध्या : गोस्वामी तुलसीदास ने 'सुरसरि सम सब कर हित होई' की भावना से यदि साढ़े चार शताब्दी पूर्व रामकथा का कालजयी गान किया, तो युग तुलसी ने तुलसी के गायन की मर्मस्पर्शी भाव भागीरथी प्रवाहित की। उनकी भाव भागीरथी शाताधिक ग्रंथों के रूप में प्रवाहमान है और जिसका अवगाहन कर रामकथा के मुमुक्षु स्वयं को तृप्त करते हैं। एक नवंबर 1924 को जबलपुर में पैदा हुए युगतुलसी के पिता पं. शिवनायक उपाध्याय रामकथा के सुविज्ञ व्याख्याकार थे और रामकथा का यह संस्कार बालक रामकिकर में बखूबी आरोपित हुआ। वे नाम के ही युगतुलसी नहीं थे। सच्चाई तो यह है कि उन्हें याद करना एक युग का स्मरण है। मात्र 18 वर्ष की उम्र में पिता ने उन्हें अपनी पीठ से कथा कहने का प्रस्ताव दिया। रामकिकर ने इस प्रस्ताव को पिता का आदेश मान कर स्वीकार तो कर लिया, पर मन में कुछ संकोच था। वह यह कि उन जैसे युवा की गैर पारंपरिक शैली का वक्तव्य पारंपरिक श्रोताओं के लिए कितना सुपाच्य होगा। इस संकोच के विपरीत उनकी गहन अंतर्दृष्टि और शैली श्रोताओं को विमुग्ध करने वाली साबित हुई। युगतुलसी ने इसके बाद पीछे मुड़ कर नहीं देखा। रामकथा की प्रारंभिक अनुभूति के साथ वे रामकथा के मात्र प्रवचनकर्ता ही नहीं रह गये, बल्कि जीवन की श्वांस-प्रश्वांस के साथ श्रीराम और रामकथा के अन्य पात्रों को जीने लगे। जल्दी ही उनकी ख्याति शास्त्रज्ञता के पर्याय माने जाने वाले दिग्गज संत स्वामी अखंडानंद तक पहुंची। अखंडानंद के ही आमंत्रण पर युवा रामकिकर को श्रीकृष्ण की नगरी वृंदावन में रामकथा सुनाने का सुअवसर मिला और श्रोताओं में स्वामी अखंडानंद सहित उड़िया बाबा एवं हरिया बाबा जैसी आध्यात्मिक विभूतियां शामिल थीं। काशी हिदू विश्वविद्यालय के विजिटिग प्रोफेसर होने के साथ पं. रामकिकर सरस्वती के उस चिन्मय-चैतन्य मंदिर को भी अपनी मर्मस्पर्शी भाव भागीरथी से अभिषिक्त करते रहे। यहां उनके प्रशंसकों में शिक्षा जगत के कई दिग्गज शुमार थे। काशी में ही वे शीर्ष संतों एवं शिक्षा-संस्कृति के मर्मज्ञ आचार्यों की ओर से युगतुलसी की उपाधि से नवाजे गये। उनकी भावना और प्रतिभा से देश का शीर्ष औद्योगिक घराना बिड़ला परिवार भी अछूता नहीं रह सका। इस परिवार की ओर से न केवल प्रत्येक वर्ष मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों में उनकी कथा करायी जाती थी, बल्कि उनके प्रवचन की तात्विकता और शाश्वत संदेश सहेजने के उद्देश्य से उनके प्रवचन का संकलन ग्रंथों के रूप में प्रकाशित किया जाता रहा। आज उनकी शताधिक कृतियां प्रकाशित हैं, जो रामकथा की इनसाइक्लोपीडिया होने के साथ आस्था के नित्य-नूतन मोतियों का ढेर हैं और जिस माला में गुंथ कर श्रद्धालु रामकथा के साथ स्वयं की मुक्ति तलाशते हैं। जीवन की संध्याबेला में युगतुलसी आराध्य की नगरी में बसने आ गये। यहां उन्होंने स्वयं से आराध्य के रिश्ते की विरासत के अनुरूप 'रामायणम' नाम से आश्रम की स्थापना की और यहीं नौ अगस्त 2002 को चिरनिद्रा में लीन हो गये। रामायणम के परिसर में उनकी समाधि ओर उनका विग्रह साढ़े छह दशक से अधिक समय तक प्रवचन के क्षितिज पर चमकने वाले आला किरदार की याद दिलाने के साथ रामकथा की भाव भागीरथी में डूबने की दावत देता है।

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दिल को छूने वाला है उनका चितन

- रामायणम ट्रस्ट की अध्यक्ष एवं युगतुलसी की आध्यात्मिक-सांस्कृतिक परंपरा आगे बढ़ा रहीं मंदाकिनी रामकिकर कहती हैं, पूज्य गुरुदेव का चितन बहुत व्यापक था और जीवन के विविध आयामों को आलोकित करने वाला है और वह मस्तिष्क के साथ दिल को भी छूता है।

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