दिव्यांग के हौसले से हारी हजारों मील की दूरी

रुदौली (अयोध्या) हर रोज गिर कर भी मुकम्मल खड़े हैं ऐ जिदगी देख मेरे हौसले तुझसे भी बड़े हैं ये शब्द मवई ब्लॉक के नयापुरवा निवासी दिव्यांग हरिश्चंद्र यादव पर सटीक बैठते हैं। लगभग पांच वर्ष पहले आर्थिक उन्नति के लिए मुंबई का रुख करने वाले हरिश्चंद्र भिवंडी में एक होटल में काम करते थे। अचानक लॉकडाउन की घोषणा हुई तो काम धंधा बंद हो गया पगार भी मिली नहीं। अभी महज तीन दिन बीते थे कि राशन खत्म हो गया। जेब में बमुश्किल एक हजार रुपए बचे थे।

By JagranEdited By: Publish:Mon, 01 Jun 2020 12:40 AM (IST) Updated:Mon, 01 Jun 2020 12:40 AM (IST)
दिव्यांग के हौसले से हारी हजारों मील की दूरी
दिव्यांग के हौसले से हारी हजारों मील की दूरी

रुदौली (अयोध्या) 'हर रोज गिर कर भी मुकम्मल खड़े हैं, ऐ जिदगी देख, मेरे हौसले तुझसे भी बड़े हैं'

ये शब्द मवई ब्लॉक के नयापुरवा निवासी दिव्यांग हरिश्चंद्र यादव पर सटीक बैठते हैं। लगभग पांच वर्ष पहले आर्थिक उन्नति के लिए मुंबई का रुख करने वाले हरिश्चंद्र भिवंडी में एक होटल में काम करते थे। अचानक लॉकडाउन की घोषणा हुई तो काम धंधा बंद हो गया, पगार भी मिली नहीं। अभी महज तीन दिन बीते थे कि राशन खत्म हो गया। जेब में बमुश्किल एक हजार रुपए बचे थे। खाने को लाले पड़ गए। घर जाने के लिए कोई साधन नहीं था। साथ रह रहे इलाके के नौ कामगारों ने पैदल ही घर चलने का मन बनाया, पर हर कोई बाएं पैर से दिव्यांग हरिश्चंद्र की तरफ देख कर कहता कि यह कैसे चलेंगे। सबकी चुप्पी तोड़ते हुए हिम्मत कर उसने साथ चलने की हामी भरी। बस फिर क्या था, हजारों मील की दूरी कदमों से नापने निकल पड़ा। आंखों की लाली धूप की तड़प को बतला रही थी और पांवों के छाले उनके बढ़ते कदम को रोकने में बेबस साबित हो रहे थे। मंजिल सिर्फ एक, घर पहुंचना था। पहले दिन ही शरीर थक कर चूर हो गया। तीसरे दिन एक ट्राला मिला, सभी उस ट्राला में सवार हो गए। चार दिन बाद एमपी की सीमा पर पहुंचे। फिर पैदल हो गए। सीमा पर लाई, गुड़ व पानी बंट रहा था, उससे भूख प्यास मिटाई, फिर चल पड़े। हाईवे के किनारे स्थित गांवों में रात विश्राम होता तो ग्रामीणों की मदद से कुछ खाने को मिल जाता। आठवें दिन इंदौर पहुंच गए। अब पुलिस पैदल चलने वाले प्रवासियों को रोकने लगी थी। गांव की गलियों का सहारा लेना पड़ा तो कहीं पर पुलिस से मिन्नतें भी करनी पड़ी। एक रात बारिश होने लगी, दूर दूर तक सिर छिपाने की जगह नहीं थी, अब हाईवे का अंडर पास मददगार बना। पूरी रात जाग कर बिताई, बारिश थमी तो फिर उम्मीदों के सहारे पग बढ़ने लगे। अब तक 13 दिन बीत चुके थे, दर्द की गोलियां भी अब असर नहीं कर रही थी। हरिश्चंद्र का जत्था अब अपने गृह प्रदेश में प्रवेश कर चुका था। अगले दिन झांसी पहुंचे तो उम्मीदें और अधिक बलवती हो गईं। एक गिट्टी लदा ट्रक मिल गया, प्रति व्यक्ति पांच सौ रुपये भाड़ा तय हुआ, लेकिन बैठने की जगह ट्रक पर लदी गिट्टी पर मिली। खतरा था मगर दूसरा विकल्प नहीं था। मजबूरी में हौसले का सफर खतरे में तब्दील हो चुका था। ट्रक पर पहले से भी दर्जनों कामगार बैठे थे, ऐसे में कोरोना संक्रमण होने का खतरा भी था। ट्रक ने दूसरे दिन रात में 26 अप्रैल को मवई चौराहा पर उतारा तो लगा मानो दूसरी जिदगी मिली। यहां से सीएचसी पहुंच जांच कराई और गांव के प्राथमिक स्कूल में क्वारंटाइन हो गया। पत्नी व बच्चे स्कूल की तरफ दौड़े आए तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मंजिल मिल गई पर 14 दिन स्कूल में ही रहना पड़ा। क्वारंटाइन अवधि पूरी कर खाली हाथ घर आया तो फिर परिवार का पेट पालने की चिता सताने लगी। राशन मुफ्त में मिल चुका था लेकिन गृहस्थी चलाने के लिए अब मनरेगा में मजदूरी कर रहा हूं। फिर मुंबई जाने के सवाल पर हरिश्चंद्र ने बताया कि अपने परिवार को पालने के लिए घर बार छोड़ा लेकिन जब संकट आया तो उनके दर्द को समझने वाला वहां कोई नहीं था। ऐसे में अब मुंबई कौन जाएगा साहब.. मजबूरी में कोई साथ नहीं है मजदूरी में तो पैसा मिलता था। यहां कम मिलेगा, कम में ही काम चलेगा। जिदगी में सुकून तो रहेगा।

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