मानो नई जिंदगी लेकर आई थी आजाद भारत की वो सुबह

बरेली जेएनएन आजाद भारत की वो सुबह मानो नई जिंदगी लेकर आई थी। अंग्रेजों की बेड़ियां टूट चुकी थी। 15 अगस्त 1947 की सुबह पांच बजे कुतुबखाना घंटाघर के पास सैकड़ों लोगों की भीड़ जमा थी। रेडियो पर आजादी की घोषणा होने के बाद हर नागरिक आजादी के जश्न में डूब गया था। देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारियों के गगनचुंबी नारे लगाए जाने लगे। शायद यह बरेली की पहली दिवाली थी जो दिन निकलते ही मनाई जाने लगी थी।

By JagranEdited By: Publish:Sat, 15 Aug 2020 02:27 AM (IST) Updated:Sat, 15 Aug 2020 06:04 AM (IST)
मानो नई जिंदगी लेकर आई थी आजाद भारत की वो सुबह
मानो नई जिंदगी लेकर आई थी आजाद भारत की वो सुबह

बरेली, जेएनएन : आजाद भारत की वो सुबह मानो नई जिंदगी लेकर आई थी। अंग्रेजों की बेड़ियां टूट चुकी थी। 15 अगस्त 1947 की सुबह पांच बजे कुतुबखाना घंटाघर के पास सैकड़ों लोगों की भीड़ जमा थी। रेडियो पर आजादी की घोषणा होने के बाद हर नागरिक आजादी के जश्न में डूब गया था। देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारियों के गगनचुंबी नारे लगाए जाने लगे। शायद यह बरेली की पहली दिवाली थी, जो दिन निकलते ही मनाई जाने लगी थी। उस दिन के गवाह बने लोगों ने वह एहसास साझा किया। ़

जिधर निगाह जाए, तिरंगे ही नजर आ रहे थे

सर्वोदयनगर के श्रीकृष्ण अग्रवाल बताते हैं कि आजादी की लंबी लड़ाई के बाद एक नया सूरज उस सुबह उगा था। लोगों की खुशी आसमान छू रही थी। जिस तरफ निगाह दौड़ाओ, बस तिरंगे ही नजर आते थे। मैं दस साल का था। मेरे पिता, स्व. ब्रजमोहन लाल शास्त्री, जोकि पहले विधायक थे बरेली शहर के। वह कई स्कूलों में झंडारोहण करने के लिए मुझे साथ ले गए थे। मेरे पिता छह बार जेल गए थे, इसलिए आजादी की उस सुबह की खुशी के मायने कुछ शब्दों में नहीं बताए जा सकते हैं।

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आजादी की खुशी और बंटवारे का गम लिए सड़कों पर थे लोग

पूर्व सांसद राजवीर सिंह बताते है कि 15 अगस्त 1947 की उस सुबह को लोग खुशी में सराबोर थे, लेकिन बुजुर्ग लोगों की पेशानी से लुढ़कता पसीना उस दुख और चिता की गवाही दे रहा था जो बंटवारे के रूप में सामने आने वाली थी। लोग को भान था कि नुकसान क्या होगा। लेकिन दीवाली मनाते, मिठाई खिलाते लोग चौराहों पर निकल आए थे। खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। बरेली के सभी मुख्य चौराहों पर ढोल बजाकर लोग नाच रहे थे। गले लगकर आजादी मिलने की बधाई दे रहे थे।

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कुतुबखाना से गुलाबराय तक कॉलेज तक शहर सड़कों पर

15 अगस्त, 1947। यह कहते ही इंद्रानगर हरीश चंद सक्सेना के जेहन में बरेली की वो खुशियों भरी सुबह की यादें ताजा हो जाती हैं। बोले, क्रांतिकारी और सेनानियों के अथक प्रयासों के सफल होने की खुशी बहुत ज्यादा थी। कुतुबखाना, अयूब खां चौराहा से लेकर गुलाबराय इंटर कॉलेज तक लोग एक दूसरे को मिठाई खिला रहे थे। लेकिन एक दुख भी सबके दिलों में था.. वह था बंटवारे का। शाहबाद और भूड़ में पाकिस्तान से आए लोग बसाए गए थे।

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