बरेली में चमक रहा द्रोपदी का हुनर

अपनी माटी की तासीर ही कुछ ऐसी है। यह हौसला देती है और आगे बढ़ने का रास्ता भी। ओमप्रकाश के परिवार ने भी इसी मिट्टी का सहारा लिया। कलाकार परिवार का हुनर इसमें ऐसी सजीवता लाता है कि देखने वाले हैरत में पड़ जाएं। 26 वर्षों से वह इस कला को साधना के तौर पर करते चले आ रहे।

By JagranEdited By: Publish:Tue, 26 Oct 2021 05:56 AM (IST) Updated:Tue, 26 Oct 2021 05:56 AM (IST)
बरेली में चमक रहा द्रोपदी का हुनर
बरेली में चमक रहा द्रोपदी का हुनर

जागरण संवाददाता, बरेली: अपनी माटी की तासीर ही कुछ ऐसी है। यह हौसला देती है और आगे बढ़ने का रास्ता भी। ओमप्रकाश के परिवार ने भी इसी मिट्टी का सहारा लिया। कलाकार परिवार का हुनर इसमें ऐसी सजीवता लाता है कि देखने वाले हैरत में पड़ जाएं। 26 वर्षों से वह इस कला को साधना के तौर पर करते चले आ रहे। दिवाली पर खासतौर से इंतजार रहता है, क्योंकि इन्हीं दिनों में अर्जित आय उनके परिवार के जीवन-यापन का जरिया बनता है। ओमप्रकाश और उनकी दिव्यांग बेटी मिट्टी को सोना बना रही, अब उन्हें आपका साथ चाहिए। इस त्योहार पर मिट्टी की बनी मूर्तियां खरीदेंगे तो ऐसे परिवारों की रंगत बढ़ जाएगी।

भूड़ पट्टी निवासी ओमप्रकाश बताते हैं कि पैतृक काम यही है। दिवाली पर मूर्तियां ज्यादा बनती हैं। वैसे पूरे साल में करीब एक लाख मूर्तियां बना देते हैं। अब लोग चीन के उत्पाद पसंद नहीं करते। मिट्टी की बनी मूर्तियों की मांग ज्यादा होने लगी तो इन्हें बनाने की संख्या भी बढ़ा दी है।

बचपन में संघर्ष से सामना

ओमप्रकाश की बेटी द्रोपदी विशेष तौर से उनकी मदद करती हैं। चार माह की उम्र में वह पोलियो का शिकार हो गई थीं। द्रोपदी कहती हैं कि शिक्षक बनना चाहती थी मगर, आठवीं के बाद पढ़ाई नहीं कर सकी। स्कूल में कुछ बंदिशें लग गई, जिसके बाद पिता से मूर्ति बनाने का हुनर सीख लिया। इनमें रंग भरने का कौशल आ गया। जिसके बाद मैंने तय कर लिया कि इसी हुनर के जरिये परिवार का सहारा बन जाऊंगी।

फरवरी से जुट जाते हैं परिवार के सदस्य

द्रोपदी ने बताया कि धनतेरस के तीन दिन पहले ही मूर्तियां की फुटकर बिक्री शुरू हो जाती है। इससे पहले थोक खरीदार पहुंचने लगते हैं। त्योहार के लिए फरवरी से ही तैयारी शुरू कर दी जाती है। पिता मिट्टी, उपले आदि की खरीद करते हैं। सितंबर में 20-25 मूर्तियां तैयार कर उन्हें आग में पकाने का काम शुरू हो जाता है। इसी प्रक्रिया के जरिये धीरे-धीरे मूर्तियां तैयार होती रहती हैं। पिता मूर्तियों को आकार देते हैं, जबकि परिवार के बाकी लोग उन्हें आग में पकाने, रंग भरने का काम करते है। ओमप्रकाश बताते हैं कि द्रोपदी मूर्तियों में रंग भरती हैं, जिससे वे सजीव दिखने लगती हैं।

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