बाघिन मां-बेटी के साथ गुजारा साल, ईजाद किया गिनती का तरीका

बरेली, अशोक आर्य : शरीर के आकार को छोड़ दें तो सारे बाघ एक जैसे। एक सा रंग और एक जैसी बनावट। इनकी अलग

By JagranEdited By: Publish:Wed, 03 Mar 2021 05:42 AM (IST) Updated:Wed, 03 Mar 2021 05:42 AM (IST)
बाघिन मां-बेटी के साथ गुजारा साल, ईजाद किया गिनती का तरीका
बाघिन मां-बेटी के साथ गुजारा साल, ईजाद किया गिनती का तरीका

बरेली, अशोक आर्य : शरीर के आकार को छोड़ दें तो सारे बाघ एक जैसे। एक सा रंग और एक जैसी बनावट। इनकी अलग पहचान की तलाश में सेवानिवृत्त वैज्ञानिक डा. बाल मुकुंद अरोड़ा एक साल तक चिड़ियाघर की बाघिन मां-बेटी के इर्द गिर्द रहे। हर गतिविधि को परखा और अलग पहचान के निशान तलाशने में जुटे रहे। प्रयास रंग लाया और शरीर पर पड़ी धारियों से बाघों की पहचान की जाने लगी।

टीबरी नाथ कॉलोनी में रहने वाले डा. बीएम अरोड़ा प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली के चिड़ियाघर में बतौर निदेशक गए थे। बताते है कि वर्ष 1990 तक बाघों की गिनती के लिए पग चिह्न देखे जाते थे, लेकिन यह उनकी गणना का सटीक तरीका साबित नहीं हुआ। जबकि संरक्षण के लिए जरूरी था कि प्रत्येक की पहचान कर उन पर निगाह रखी जाए। वर्ष 1989 में कर्नाटक के जीव विज्ञानी डा. उल्हासकरन ने एक अंतरराष्ट्रीय संस्था के साथ मिलकर रास्ता तलाशने का प्रयास किया। इसके लिए छह बाघ बेहोश किए, फोटो खींचे गए। उनकी पहचान तलाशने की तैयारी थी मगर दो बाघों की मौत हो गई। जिसके बाद यह प्रोजेक्ट ठंडे बस्ते में चला गया। वर्ष 1991-92 में डा. अरोड़ा दिल्ली चिडि़याघर में डायरेक्टर थे। उसी समय उन्होंने दो मादा बाघों पर पहचान के लिए काम शुरू किया।

एक साल तक लगातार बाघिन मां-बेटी की निगरानी की। उनके शरीर के हर हिस्से को गौर से देखा। फोटो खींचकर उनमें अंतर तलाशते थे। एक साल की मेहनत के बाद साफ हुआ कि मां बाघिन व बेटी बाघिन के शरीर पर पड़ी धारियां अलग हैं। जैसे हर इंसान के फिगर प्रिट अलग होते हैं, वैसे ही हर बाघ-बाघिन की धारियों का पैटर्न भी अलग होता है। इसी के आधार पर उन्होंने मां बाघिन का नाम मैको, बेटी बाघिन का नाम कीको रख दिया।

तीन स्थानों पर देखी जाती हैं धारियां

डा. अरोड़ा बताते हैं कि अध्ययन के दौरान पाया कि दोनों बाघिन की कूल्हे से जांघ के बीच, कंधे और पेट पर अलग तरीके की धारियां थीं। अध्ययन को पुष्ट करने के लिए कुछ और चिडि़याघरों से फोटो मंगवाए गए। जिससे स्पष्ट हुआ कि हर बाघ के शरीर पर इन तीन स्थानों पर अपनी अलग बनावट की धारियां होती हैं। कहते हैं कि उनके इस सुझाव पर बाघ संरक्षण के लिए पहल करने वाली संस्थाओं ने काम किया। कुछ अन्य स्थानों पर भी इसको लेकर काम हो रहा था। सभी सुझावों को शामिल करने के बाद जंगलों में कैमरे लगाकर बाघों की तस्वीरें ली गईं, धारियों के आधार पर उनकी पहचान कर गणना की जाने लगी।

वर्ष 2002 में सेवानिवृत्त हुए, ललक अभी भी

डा. अरोड़ा की वर्ष 1969 में भारतीय पशु चिकित्सा एवं अनुसंधान संस्थान में रिसर्च असिस्टेंट के पद पर तैनाती हुई। तीन साल बाद वह पीएचडी करने के लिए लुधियाना चले गए। वहां से 1976 में दोबारा आइवीआरआइ लौटे। फिर यहीं वाइल्ड लाइफ में सीनियर साइंटिस्ट हो गए और संस्थान में वाइल्ड लाइफ का विभाग बनाया। सेंटर फार वाइल्ड लाइफ कन्जर्वेशन, मैनेजमेंट एंड डिजीज सर्विलांस विभाग से वर्ष 2002 में रिटायर्ड हुए। सेवानिवृत्त होने के बाद भी वन्य जीवों पर काम करते रहे। वन्य जीवों के प्रति ऐसी दीवानगी है कि उनका घर जंगल जैसा लगता है। दीवारों पर वन्य जीवों व जंगल की एक दर्जन से ज्यादा पेंटिग हैं। यहां तक कि बेड शीट भी वही होती हैं, जिन पर वन्य जीव बने होते हैं। बुजुर्ग हैं मगर रातों को जागकर किताबें लिखकर उनमें अपने अनुभव साझा करते हैं। अंग्रेजी में नौ पुस्तकें लिख चुके हैं। एक हिदी का पहला संस्करण है जिसमें 720 पेजों पर उन्होंने वन्य जीवों के संकटग्रस्त होने पर उन्हें हालात से बाहर निकालने के बारे में भी बताया है।

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