Dainik Jagran Sanskarshala : बच्चों को बचपन से ही मिलनी चाहिए पर्यावरण संरक्षण की सीख
Dainik Jagran Sanskarshala जीआईसी के प्रधानाचार्य डा. अवनीश यादव ने बताया कि बतौर शिक्षक मेरा स्कूल में पहला दिन था। बच्चे स्कूल के बाहर आम के पेड़ को देख रहे थे। कुछ बच्चों के हाथों में कापियां भी थीं जिन पर वे कुछ नोट कर रहे थे।
बरेली, जेएनएन। Dainik Jagran Sanskarshala : जीआईसी के प्रधानाचार्य डा. अवनीश यादव ने बताया कि बतौर शिक्षक मेरा स्कूल में पहला दिन था। बच्चे स्कूल के बाहर आम के पेड़ के नीचे खड़े होकर पेड़ को देख रहे थे। कुछ बच्चों के हाथों में कापियां भी थीं, जिन पर वे कुछ नोट कर रहे थे। मैं कौतूहलवश उन बच्चों के बीच जाकर खडा़ हो गया। एक दो बच्चों के अलावा किसी ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। एक बच्चे ने अपने दोस्त से कहा सोनू वो लाल-लाल क्या है, गिलहरी भी है, अरे देख तोता, मकड़ी ने भी तो अपना जाला फैला रखा है, जैसे पारस्परिक सवाल-जबाव चल रहे थे। मैं कुछ देर वहां रहा फिर स्कूल में आ गया। आकर सभी को अपना परिचय दिया और आने का कारण बताया।
थोड़ी देर में सभी बच्चे कक्षा में आ गए। शिक्षक ने सभी को गोलाकार में बैठाया और आम के पेड़ के बारे में विस्तार से बात की, कि पत्ती, फल, जड़ ,तना फिर उसकी उपयोगिता पर ईंधन, फर्नीचर, छांव, फल, अचार, सब्जी, पशु बांधना,पशु पक्षियों कीट पतंगों का आश्रय जैसे तमाम उपयोग बच्चों के द्वारा बताए गए। अचानक एक शिक्षक ने वहां आकर कहा कि इस पेड़ को काटने की बात चल रही है। बच्चे एकाएक मायूस और उग्र हो गए। बोले, बिल्कुल नहीं, हम ऐसा नहीं होने देंगे। पेड़ न रहने पर गिलहरी, तोता, चिड़िया, कहां रहेंगे। इनका तो घर ही यह पेड़ है। हम अचार कहां से डालेंगे। एक बच्चा बोला। मेरी भैंस को छाया कैसे मिलेगी। एक और बच्ची बोला कि मैं झूला कहां डालूंगी।
पर्यावरण को परिभाषित करते समय हम उसे अपने चारों ओर का आवरण बताते रहे थे। लेकिन इस आवरण के घटक कौन कौन से हैं, उनके सह सम्बंध क्या हैं, कैसे ये सारे घटक एक दूसरे के पूरक हैं और कैसे किसी एक के जीवित रहने के लिए दूसरे का अस्तित्व में होना जरूरी है इस पर गहरी बात नहीं होती। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर आयोजित विभिन्न कार्यक्रम भी केवल औपचारिकता भर बनकर रह जाते हैं । मेरा इन कार्यक्रमों से कोई विरोध नहीं है। हां, इनका स्वरूप अखरता है। पेड़-पौधे,जीव-जंतु जो भी हमारे पर्यावरण में मौजूद हैं उन सब से हमारा गहरा रिश्ता है। हम उनके लिए जरूरी हैं, वे हमारे लिए अनिवार्य। यह संबंधों का एक ऐसा अदृश्य ताना-बाना है जो हम सबको प्रभावित करता है।
हम जिस प्राकृतिक संतुलन के बनने बिगड़ने की बात करते हैं वह हमारे द्वारा इस ताने बाने को अस्त-व्यस्त करने से ही होता है। बच्चे, बड़े इस पारस्परिक निर्भरता व सहसंबंध को जानें और इसके प्रति सहज स्वभाविक रूप से संवेदनशील हों यह जरूरी है। किसी एक पेड़ के कटने से होने वाली हानि और वृक्ष लगाने से होने वाले लाभ को वे दिल से महसूस करें। इसके लिए जरूरी है कि बच्चों से कक्षाओं में इस रिश्ते पर विस्तार से बातचीत हो और उन्हें ऐसे क्रियाकलापों, गतिविधियों से जोड़ा जाए कि वे पर्यावरण अध्ययन को केवल जानकारी नहीं बल्कि संवेदना के स्तर पर महसूस करें। बड़ों के लिए जरूरी है कि दिखावटी प्रपंचों से निकलकर पर्यावरणीय संतुलन के लिए जरूरी अवयवों, तत्वों के संरक्षण व समवर्धन के लिए ठोस व ईमानदार प्रयास करें। इसके विपरीत इनके दोहन व विलुप्तिकरण से सब कुछ नष्ट हो जाना है।