Coronavirus Cases in Village : जानिये बरेली के इस गांव में अभी तक क्यों नहीं पहुंचा कोरोना, दिनभर क्या करते हैं यहां के ग्रामीण
Coronavirus Cases in Village आलमपुर जाफराबाद गांव जिसकी अपनी ही एक अलग कहानी है। यूं तो यह गांव जाफरी हकीम के नाम से जाना जाता है। वर्षो पुराने इतिहास के बारे में गांव के कल्लू शर्मा बताते हैं कि कभी यहां जाफरी हकीम हुआ करते थे।
बरेली, जेएनएन। Coronavirus Cases in Village : आलमपुर जाफराबाद गांव जिसकी अपनी ही एक अलग कहानी है। यूं तो यह गांव जाफरी हकीम के नाम से जाना जाता है। वर्षो पुराने इतिहास के बारे में गांव के कल्लू शर्मा बताते हैं कि कभी यहां जाफरी हकीम हुआ करते थे। जिन्होंने लगभग 100 से भी अधिक साल पहले फैले डायरिया के रोग में लोगों को बचाया था। उस समय यहां के कई परिवार के परिवार चले गये थे। लेकिन उसके बाद गांव में बचे लोगों को जाफरी ने दवाओं के साथ दिनचर्या में बदलाव और अन्य शारीरिक श्रम के ऐसे गुर सिखाए कि अब तक गांव में कोई महामारी नहीं फैली। कोरोना की ऐसी भयावह स्थिति में भी संक्रमण यहां पर भी शून्य है। तो आइए आज आपको बरेली मुख्यालय से 16 किलोमीटर दूर बसे इस गांव की ओर लेकर चलते हैं...
पीपल के पेड़ के नीचे ऑक्सीजन के लिए बैठते हैं लोग
गांव में घुसते ही संतोष, रवीन्द्र , राजकुमार, घूरे, कल्लू सब पीपल के नीचे बैठे बतिया रहे थे। जब उनसे पूछा गया कि आप यहां क्यों बैठे हैँ। तो उन्होंने पहले तो अपने नाम बताए। इसके बाद बताया कि हमने यह जानकारी मिली है कि पीपल के नीचे आक्सीजन मिलती है। इसलिए अब यहीं बैठकर बातचीत करते हैं। हमारे गांव में काफी पीपल के पेड़ है। सब अब वहीं बैठते हैं। जाफरा गांव के रामसनेही एक हाथ में खुर्पी और दूसरे में भारी भरकम लकड़ी लिए थे। उनके चेहरे की झुर्रियां और कद काठी बयां कर रही थी कि 90 के पार के हैं। जब पूछा कि दद्दा कहां जाय रहे, तो उन्होंने कहा कि काम करन जाय रहे बिटिया। इतनी धूप में दद्दा हां बिटिया। बचपन से ही चार घंटे धूप में पसीना बहाया है। तभी तो जा उम्र में काम कर पा रहे। हमारे गांव का यह उसूल है कि हर युवा, बुजुर्ग, महिला धूप में कम से कम दो से चार घंटे काम करता है। यह हकीम की सलाह थी। तभी हमाए गांव में सब स्वस्थ है। हमें आज तक कोई बीमारी नहीं है।
आज भी जाफरा गांव में कुआं है जिसमें होता बरसात का पानी एकत्रित
जाफरा आलमपुर में आज भी कुआं है। हालांकि उस कुएं का पानी अभी पीने के उपयोग में नहीं लगाया जाता है। लेकिन कुएंं को लोग धरोहर और खुशहाली का प्रतीक मानते हैं। पशुओं के लिए अभी भी रस्सी डालकर पानी लेते हैं। महेंद्र सिंह का कहना है कि बरसात का पानी होता है। तो इस कुएंं में ही डालते हैं। गांव में जब तालाब लबालब हो जाता है। तो कुएंं में स्रोत बना है उससे बरसात का पानी कुंए में इकट्ठा करते हैं। जिससे वाटर लेवल बना रहे। गा्रमीण मिलकर ये काम करते हैं।
सरकारी सुविधाओं को मोहताज आलमपुर स्वास्थ्य से नहीं करता समझौता
आलमपुर जाफरा में सरकारी सुविधाओं के नाम पर एक सरकारी नल तक नहीं है। लेकिन यहां के लोग फिर भी अपनी सेहत का ध्यान रखते हैं। ग्रामीणों ने मिलकर मौहल्लों में हैंडपंप लगाए हैं। जिस किसान के खेत में सब्जी होती है। उससे बाजार के भाव में सब्जी लेते हैं। पूरा गांव पीने के पानी को छानकर ही पीता है। इसके साथ ही कोरोना के बचाव के लिए गांव के शिक्षित युवा सभी को समय-समय पर जागरुक करते हैं।
महिलाएं भी स्वास्थ्य के मामले में रखती हैं पूरे परिवार का ख्याल
परिवार के बच्चों, बुजुर्गों, पुरुषों को स्वस्थ रखने में महिलाएं बहुत सतर्क हैं। 80 वर्षीय रानी दादी बताती हैं। इस गांव की यह परंपरा है हर घर में आठ बजे तक कलेऊ बनता है। हर महिला आौर पुरुष सुबह चार बजे उठकर सब काम करते हैं। कलेऊ (नाश्ता) में पराठा, मठ्ठा और दही लेते हैं। इस गांव में कोई भी घर ऐसा नहीं कि जहां दुधारु पशु न हो। कलेऊ करनेे बाद ही खेतों, मजदूरी पर लोग निकलते हैं। इसके साथ ही अब सुबह-शाम सब काढ़ा बनाकर पीते हैं।