वह मनहूस कालखंड जब जेपी के संग चल पड़ा था देश

जागरण संवाददाता बलिया हर साल की तरह इस बार भी 25 जून अर्थात आपातकाल की बरसी पर उस

By JagranEdited By: Publish:Thu, 24 Jun 2021 05:55 PM (IST) Updated:Thu, 24 Jun 2021 06:12 PM (IST)
वह मनहूस कालखंड जब जेपी के संग चल पड़ा था देश
वह मनहूस कालखंड जब जेपी के संग चल पड़ा था देश

जागरण संवाददाता, बलिया : हर साल की तरह इस बार भी 25 जून अर्थात आपातकाल की बरसी पर उस दौर के तमाम किस्से याद आ रहे हैं। 46 वर्ष पुराने उस शर्मनाक अध्याय के मनहूस कालखंड को याद किया जाएगा, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता की सलामती के लिए आपातकाल लागू कर देश को कैदखाना जैसा बना दिया था। सेंसरशिप लागू कर मीडिया की आजादी का गला घोंटा गया। संसद, न्यायपालिका व कार्यपालिका आदि सभी संवैधानिक संस्थाओं को सरकार की भाषा बोलने के लिए विवश कर दिया गया था। 25-26 जून 1975 की रात से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने के लिए भारत में आपातकाल घोषित किया गया था। उस रात से पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में एक विशाल रैली हुई थी। इसमें लोकनायक ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ललकारा था। इसके बाद सारा देश केंद्र सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए जेपी के साथ चल पड़ा था।

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जेल से ही दी बीए की परीक्षा : आपातकाल के दौरान जेल गए तब छात्र युवा संघर्ष वाहनी के सह संयोजक, अब लोकतंत्र सेनानी संगठन के संरक्षक चंद्रशेखर सिंह ने बताया कि उस वक्त वे बीए प्रथम वर्ष के विद्यार्थी थे। इमरजेंसी लगने के बाद पुलिस आंदोलनकारियों को गिरफ्तार करने लगी तो 26 जुलाई 1975 को उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। रसड़ा में प्यारेलाल चौराहे से सड़क पर पीटते हुए पुलिस उन्हें थाने ले गई। इससे उनकी हालत अधमरे जैसी हो गई। उसी दौरान बीए प्रथम वर्ष की परीक्षा पड़ी। उन्होंने जेल प्रशासन को अर्जी दी कि उन्हें परीक्षा देने के लिए छोड़ा जाए। उन्हें रिहा करने के बजाय जेल से ही परीक्षा देने की व्यवस्था की गई। कुछ दिन बाद उन्हें बलिया से प्रयागराज के नैनी जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। 14 जनवरी 1977 को 19 माह के बाद उनकी रिहाई हुई। उस वक्त जिले की कमान छात्र युवा संघर्ष वाहनी के संयोजक रहे गौरी भैया और रामगोविद चौधरी संभाल रहे थे। उन्होंने कहा कि जब-जब यह दिन आता है सभी सेनानियों के जेहन में जेपी जिदा हो उठते हैं। अब बहुत कम लोकतंत्र सेनानी बचे हैं, लेकिन जो लोग भी चलते-फिरने लायक हैं, वे इस दिवस को हर साल काला-दिवस के रूप में मनाते हैं।

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