1857 के गदर का गवाह बना बौंडी किला

बहराइच रंग लाता है लहू दोस्तों-मजलूमों का, हर हाल में जालिम का बुरा होता है। आप हर दौर की तारीफ उठ

By Edited By: Publish:Sun, 14 Aug 2016 12:29 AM (IST) Updated:Sun, 14 Aug 2016 12:29 AM (IST)
1857 के गदर का गवाह बना बौंडी किला

बहराइच

रंग लाता है लहू दोस्तों-मजलूमों का, हर हाल में जालिम का बुरा होता है। आप हर दौर की तारीफ उठाकर देखें जुल्म जब हद से गुजरता है, फना होता है। यह शेर बहराइच के इतिहास को जवां करता है। यहां ऐतिहासिक पृष्ठों में अनेक गौरवशाली कथाएं सिमटी पड़ी हैं। जंग-ए-आजादी की यादें ताजा करने के लिए बहराइच का योगदान खासा अहमियत रखती है। बौंडी किला आजादी की लड़ाई का गवाह रहा है।

आजादी की लड़ाई में चहलारी नरेश बलभद्र ¨सह, बौंडी नरेश हरदत्त ¨सह सवाई व रेहुआ स्टेट के राजा गजपति देव ¨सह वीरगति को प्राप्त हुए थे। चहलारी नरेश बलभद्र ¨सह व बौंडी नरेश हरदत्त ¨सह सवाई जब अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो इसी किले में रियासतों की रणनीति तैयार की जाती थी। किले के सामने से जांबाजों ने ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ हुंकार भरी थी। भारत माता की जय, इंकलाब ¨जदाबाद के नारे किले को देखकर आज भी लोगों की जेहन में गूंज उठते हैं। क्रांतिकारियों के जज्बे की किले की दीवारें आज भी कहानी कह रही हैं। 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की ¨चगारी जब अवध से फूटी तो बौंडी भी पीछे नहीं रहा। 16 नवंबर 1857 को अंग्रेजी हुकूमत ने लखनऊ की नवाबी सेना को परास्त किया। अंग्रेजों से बचकर लखनऊ की बेगम हजरत महल अपने बेटे विरजिस कदर के साथ लखनऊ से महमूदाबाद होते हुए घाघरा नदी पार कर बौंडी पहुंचीं। यहां के राजा हरदत्त ¨सह सवाई ने उन्हें शरण दी। बेगम ने इसी किले को अपना मुख्यालय बनाया और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का संचालन करने लगीं। अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए बौंडी के किले में ही रुइया के राजा नरपति ¨सह, शंकरगढ़ के राजा बेनी माधव ¨सह, नानपारा के नवाब कल्लू खां, गोंडा के राजा देवीबख्श ¨सह, क्रांति के महानायक नाना साहब पेशवा, चर्दा के राजा जगजीत ¨सह ने संकल्प किया था। यहां बने हरदत्त ¨सह सवाई के दर्जनों किलो को अंग्रेजों ने तोपों से तहस-नहस कर दिया था, किंतु आज भी यह किला 1857 के गदर का गवाह बना हुआ है। बौंडी का इतिहास कई इतिहासकारों की रचनाओं में वर्णित है। इसमें 'अवध का इतिहास', अमृतलाल नागर कृति 'गदर के फूल' व टीकाराम त्रिपाठी रचित 'बौंडी के अतीत' में देखने को मिलता है।

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