अब नहीं आती गावों से गुड़ की सोंधी महक
गांव में बैलों की जोड़ी और कोल्हू नहीं दिखाई देते। राब और चिटका किताबों से बचे जानेंगे। अब दरवाजे-दरवाजे हुजूम नहीं लगता है।
आनंद यादव, मुंशीगंज, (अमेठी)
.. बैलों की जोड़ी बंधी घुंघरू उस से निकलती छम छम की आवाज, गुड़ की सोंधी खुशबू हंसी ठिठोली गीत गाते लोग अब गांव में नहीं सुनाई देती है। कभी पूस की ठंडी रातों में लोगों का हुजूम दरवाजे-दरवाजे कोल्हू के अगल-बगल जमा होता था। लेकिन, अब अपवाद बनकर रह गया है। इक्का-दुक्का गांव को छोड़ दिया जाए तो कहीं भी गांव में अब गुड़ बनता नहीं दिखता है। इनकी जगह अब लोग गन्ने की फसल को को क्रेशर या चीनी मिल को बेचने में भलाई समझते हैं।
किताबों में पढ़ेंगे बच्चे, राब और चिटका :
गांव में जब गन्ने की पिराई होती थी तो बच्चे पहले से ही जमा होते थे। लेकिन, अब बीते जमाने की बात हो गई है। किसी बच्चे को यह नहीं पता होगा राब और चिटका का क्या होता है। अब यह किताबों में ही पढ़ेंगे।
सूनिए जरा बुजुर्ग की बात :
हौसिला प्रसाद यादव बताते हैं कि पहले कोल्हू से गन्ने की पेराई होती थी। रात में गुड़ पकता था। ग्रामीण उस स्थान पर एकत्र हो जाते थे, जहां तरह-तरह की चर्चाएं होती थीं। रामराज यादव बताते हैं कि जब गुड़ पककर तैयार होने को होता था तो रास्ते से गुजर रहे लोग सोंधी महक से रुक जाते थे। परिचय होता था बातचीत होती थी, जिससे भाईचारे को बढ़ावा मिलता था। आज वह बात नहीं रह गई। शीतल प्रसाद यादव बताते हैं कि अब तो राब, खांढ, चिटका से नई पीढ़ी अनजान हो गई है। पहले तो देशी गन्ने से बनाने वाला गुड़ दानेदार व स्वादिष्ट होता था, जो कि अब देखने को नहीं मिलता है। त्रिवेणी प्रसाद मिश्र निवासी दलशाहपुर बताते हैं कि हमरे समय मा गन्ना, रस, गुड़, गंजी सब रेल रहा, बैलगाड़ी सवारी रही, डीजल, पेट्रोल केहु जनतय नही रहा, आज दुनिया भर कै सुबिधा, गाड़ी फिरौ कोरोना जैसे बीमारी पहिले मजा रहा।
नहीं होती थी चोरी की वारदातें :
ठंड के मौसम चोरों के लिए मुसईब माना जाता है गांव में जगह-जगह गन्ने की पिराई होती थी। लोग रात भर जागकर गन्ने की पेराई करते थे। गांवों रात-रात भर जगराता माहौल होता था। कहीं चोरी की वारदात नहीं सुनाई पड़ती थी। लेकिन, अब सब कुछ बदल गया है। पहले जैसी बात नहीं रह गई है।