इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा के निधन से शोक की लहर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुए थे सेवानिवृत्त
प्रख्यात इतिहासकार व साहित्यकार लाल बहादुर वर्मा गोरखपुर विश्वविद्यालय और मणिपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने के बाद 1990 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य शुरू किया था। यहीं से वह सेवानिवृत्त भी हुए थे। पिछले कुछ वर्ष से वह देहरादून चले गए थे।
प्रयागराज, जेएनएन। प्रख्यात इतिहासकार और साहित्यकार प्रो. लाल बहादुर वर्मा के निधन से प्रयागराज में शोक की लहर छा गई है। यहां के विद्वानों ने उनके निधन को इतिहास की अपूरणीय क्षति बताई। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भी अध्यापक थे। यहीं से वह सेवानिवृत्त भी हुए थे। रविवार की देर रात उनका निधन हो गया। उनका इलाज देहरादून के एक अस्पताल में चल रहा था।
चार वर्ष पूर्व प्रयागराज से देहरादून शिफ्ट हो गए थे
कोरोना से ठीक होने के बाद प्रो. लाल बहादुर वर्मा किडनी की बीमारी से पीड़ित हो गए थे। रविवार की रात उनकी डायलसिस होनी थी, लेकिन किसी वजह से नहीं हो पाई और देर रात निधन हो गया। प्रो. वर्मा मौजूदा दौर के उन गिने-चुने लोगों में से थे, जिनकी पुस्तकें देश अधिकतर विश्वविद्यालयों के किसी न किसी पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही हैं। वे लंबे समय तक इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में रहे, तकरीबन चार वर्ष पहले देहरादून शिफ्ट हो गए थे।
इतिहासविद और विद्वानों में दुख की लहर
प्रयागराज में प्रो. लाल बहादुर वर्मा के निधन की जानकारी होने पर इतिहासविद और विद्वानों में शोक छा गया। 10 जनवरी 1938 को बिहार राज्य के छपरा जिले में जन्मे प्रो. वर्मा ने प्रारंभिक हासिल करने के बाद 1953 में हाईस्कूल की परीक्षा जयपुरिया स्कूल आनंदनगर गोरखपुर से पास किया था। इंटरमीडिएट की परीक्षा 1955 में सेंट एंउृज कालेज और स्नातक 1957 में किया। स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही वे छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे। लखनउ विश्वविद्यालय से 1959 में स्नातकोत्तर करने के बाद 1964 में गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रो. हरिशंकर श्रीवास्तव के निर्देशन में ‘अंग्लो इंडियन कम्युनिटी इन नाइनटिन सेंचुरी इंडिया’ पर शोध की उपाधि हासिल किया। 1968 में फ्रेंच सरकार की छात्रवृत्ति पर पेरिस में ‘आलियांस फ्रांसेज’में फे्रंच भाषा की शिक्षा हासिल किया।
1990 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया
गोरखपुर विश्वविद्यालय और मणिपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने के बाद 1990 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करते हुए यहीं से सेवानिवृत्त हुए। ‘इतिहासबोध’ नाम पत्रिका बहुत दिनों तक प्रकाशित करने के बाद अब इसे बुलेटिन के तौर पर समय-समय पर प्रकाशित करते रहे। इनकी हिंदी, अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा में डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई। इसके अलावा कई अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा की किताबों का अनुवाद भी किया है। 20वीं सदी के लोकप्रिय इतिहासकार एरिक हाब्सबाॅम की इतिहास श्रंखला ‘द एज आफ रिवोल्यूशन’ अनुवाद किया था, जो काफी चर्चित रहा। उनकी प्रमुख पुस्तकों में ‘अधूरी क्रांतियों का इतिहासबोध’,‘इतिहास क्या, क्यों कैसे?’,‘विश्व इतिहास’, ‘यूरोप का इतिहास’, ‘भारत की जनकथा’, ‘मानव मुक्ति कथा’, ‘ज़िन्दगी ने एक दिन कहा था’ और ‘कांग्रेस के सौ साल’ आदि हैं। जिन किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया है, उनमें प्रमुख रूप से एरिक होप्स बाम की पुस्तक ‘क्रांतियों का युग’, कृष हरमन की पुस्तक ‘विश्व का जन इतिहास’, जोन होलोवे की किताब ‘चीख’ और फ्रेंच भाषा की पुस्तक ‘फांसीवाद सिद्धांत और व्यवहार’ है।